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समभूत समभूतरक्षणः स्वसमुत्सर्गविसर्गलक्षणः । शिवमानवमानवक्षण: नृपतेरूत्सवदुत्स वक्षणः ॥
इसमें कवि ने जयकुमार के पुत्र अनन्तवीर्य की उत्पत्ति के क्षण का वर्णन किया है। राजा जयकुमार का वह उत्सव क्षण जिसमें समस्त जीवों का संरक्षण था, जिसमें धन आदि का पूर्ण परित्याग था तथा जो मोक्ष लक्ष्मी अथवा सुख लक्ष्मी के आदर के लिए मङ्गल कलश रुप था, वह जल के एकत्रित होने के स्थआन के समान हुआ था ।
इस श्लोक के चारों पादों के अन्त में क्षण शब्द की आवृत्ति है तथा तृतीय चरण में 'मानव मानव' की आवृत्ति व चतुर्थ पाद में उत्सव उत्सव की आवृत्ति रम्य है ।
यमक की एक और बानगी देखिए
इत इदं तु कलेवरमुद्धतमितरतः सकलं समलं कृतम् । तदपि याति जनः समलडकृतं न पुनरीक्षणमेवमलंकृतम् ॥
हे जितेन्द्रिय इधर एक ओर इस शरीर को रखो और दूसरी और मलसहित समस्त वस्तुओं को रखो, फिर भी यह जीव समलंकृतं - मलसहित समीचीन अलंकारों से सुसज्जित किये हुए शरीर को प्राप्त होता है । विचार युक्त वक्षु को अच्छी तरह प्राप्त नहीं होता ।
वक्रोक्ति अलडकार
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अन्यस्यान्यार्थकं वाक्यमन्यथा योजेयद्यदि ।
अन्य श्लेषेण का क्वा वा सा वक्रोक्तिस्ततोद्विधा ॥
जहाँ किसी के अन्यार्थक वाक्य को कोई दूसरा पुरुष श्लेष से या काकु से अन्य अर्थ लगा दे वहाँ दो प्रकार की वक्रोक्ति होती है ।
1. श्लेष वक्रोक्ति 2. काकु वक्रोक्ति
जयोदय महाकाव्य में वक्रोक्ति गत चमत्कार
मानिनोऽपि मनुजास्तनुजायामागता रसवशेन सभायाम् । जायते सपदि तत्र किमूहा स्वागता खलु विमानिसमूहः ॥ सुलोचना के स्वयंबर में उसके प्रति प्रेम भावना से मानी जन आये
1. जयोदयमहाकाव्य, उत्तरार्ध, 26/1 2. वही, 25 / 58 3. सा.दा., 10/7
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4. जयोदय, पूर्वार्ध 5/18