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इस श्लोक के प्रथम पाद के अन्त्य भाग में, दूसरे पद के अन्त्य भाग में सभाया एक ही शब्द की आवृत्ति हुई है। इसी प्रकार ज्जनताया की आवृत्ति तीसरे व चतुर्थ पद के अन्त्य में हुई है। इसलिए यहाँ पर अन्त्ययमकालंकार है ।
भन्नात्तिनाम ग्रहणं सपत्न्याः समर्पिताहो मदिरापि पत्न्या । अस्याः समस्या मददारणाय दृश्यापि तस्या मददारणाय ॥
इस पद्य में मददारणाय शब्द का यमक अतिशय हृदयंगम है । सौत का नाम लेकर पति ने अपनी पत्नी को मदिरा पीने को दी। परन्तु वह मंदिरा उसके लिए नशा बढ़ाने वाली होने के बजाय मद का अपहरण करने वाली (मद - दारणाय) सिद्ध हुई, किन्तु वह रण अर्थात् ईर्ष्याजनित युद्ध या कलह के लिए मद को बढ़ाने वाली (रणाय मददा) बन गई और फिर व मदिरा सपत्नी के लिए मद बढ़ाने वाली और संगम के लिए एकान्तवास की इच्छा जगाने वाली हुई । तात्पर्य यह है कि वह मदिरा देखने मात्र से इतनी विह्वल हो गई कि एकान्तवास की इच्छा करने लगी।
आमन्त्रदाना किमु देवताहमहो मदिष्टा किमु देवताह । भचित्तभानामसुदेवतापि त्वं येन लोकेष्विन देवतापि ॥
इस पद्य में प्रथम चरण की आवृत्ति द्वितीय चरण में किमुदेवताह तृतीय चरण की आवृति देवतापि चतुर्थ चरण में होने से यमक अलंकार है । अमरहृदो मृदुहारमणी या भवति स्म श्रमहा रमणीया । समय इवागाद्वारमणीयान् शरदोऽस्य सुधा का रमणीया ॥
इस श्लोक के चारों पदों में रमणीया शब्द की आवृत्ति हुई है । अतः यहाँ यमक अलंकार है ।
यमक का चमत्कार देखिए
विपल्लवानामिह सम्भवोऽपि न विपल्लवानामुत शाखिनामपि । सदारमन्ते ऽस्य विहाय नन्दनं सदा रमन्ते रूचितस्ततः सुराः ॥
प्रस्तुत श्लोक में प्रथम पद की विपल्लवान की द्वितीय पाद में आवृत्ति तथा तृतीय पाद की सदारमन्ते की चतुर्थ पाद में आवृत्ति होने से यहाँ आ यमकालंकार हैं ।
1. जयोदयमहाकाव्य, उत्तरार्ध, 16/30 2. वही, 20/83
3. वही, 22/42 4. वही, 24/51
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