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क्रम से आवृत्ति को यमक कहते हैं। जिस समुदाय की आवृत्ति हो उसका एक अंश या सर्वांश यदि अनर्थक हो तो कोई आपत्ति नहीं, किन्तु उसके किसी एक अंश या सर्वांश के सार्थक होने पर आवृत्त समुदाय की भिन्नार्थकता आवश्यक है। समानार्थक शब्दों की आवृत्ति को यमक नहीं मानते। चार, तीन, दो एक चरमओं में विकल्प से यमक होते हैं। यमक इन पादों के आदि, अन्त मध्य, मध्यान्त, आद्यन्त तथा आदि मध्यान्त सभी स्थान पर होता है। जयोदय महाकाव्य में यमकगत चमत्कार -
प्रतीहारमतः कश्चत् प्रतीहारमुपेत्य तम्।
नमति स्म मुदा यत्र न मतिः स्मरतःपृथक॥ जिस राजा को देख कामदेव के सिवा दूसरी बुद्धि या भावना ही उत्पन्न नहीं हो पाती, प्रस्तुत सभा के बीच उस जयकुमार के समीप प्रतीहार द्वारा अनुमति प्राप्त कर पहुँचे। किसी अपरिचित पुरुष ने उन्हें नमस्कार किया।
इस श्लोक में प्रथम चरण के प्रारम्भिक भाग की आवृत्ति द्वितीय चरण के प्रारम्भिक भाग में तथा इसी प्रकार दूसरी पंक्ति में भी आवृत्ति हुई है। इसलिए यहाँ पर आद्य यमक अलंकार है।
भैरवश्यमपि यत्र नभस्तु भैरवस्य धरणीतलमस्तु। वाहनैः प्रमुदितैस्ततमेतत् कं निशासु कुमुदैःसमवेतम्॥
शरद ऋतु की रात्रि में भली भाँति उदित तारों से निश्चय ही आकाश प्रमोद को प्राप्त होता है। भूतल कामोल्लसित भैरव के वाहनों अर्थात् कुत्तों में विस्तृत हो जाता है, तथा यह सरोवर जल भी रात्रि विकासी कमलों से युक्त हो जाता है।
"भैरव भैरव" शब्द की आवृत्ति होने से इसमें यमक अलंकार है। यमक की अनुपम छटा देखिए - सौष्ठवं समभिवीक्ष्य सभाया यत्र रीतिरिति सारसभायाः।
वैभवेन किल सज्जनताया मोदसिन्धुरुदभूज्जनतायाः।
कवि ने स्वयंबर सभा के वर्णन को यमक के प्रयोग से और प्रभावशाली बना दिया है। उस सभा में विकसित कमल के समान प्रसन्नता थी। उसका सौन्दर्य देखकर सज्जनता के वैभव द्वारा वहाँ की जनता का आनन्द समुद्र उमड़ रहा था।
1. जयोदयमहाकाव्य, पूर्वार्ध, 3/21 2. वही 4/63 3. वही 5/34
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