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कभी स्थिति एक सी नहीं रहती है जो आज निर्धन है कल विद्वान हो जाता है जो धनपाल है वह दरिद्र हो जाता है।
. इस श्लोक में अनुप्रास की योजना प्रभावशालिनी कुटकुटीघटमेहि वशिको वशिको में अनेक वर्गों की आवृत्ति है।
एक अन्य उदाहरण दर्शनीय है - मुनिस्तु मौनं मनुतेऽञ्जनोनं क्वचिद्धितार्थ स्वमुखादघोनम्।
निस्सारयेद्रत्नमिवातियत्नपुरस्सरं प्रत्नपदं विनूनम्॥ कवि ने इस पद्य में उपमा और अनुप्रास का बड़ा सुन्दर संयोजन किया
प्रथम तो मुंनि मौन को निष्कलंक मानते हैं, यदि कहीं बोलने का अवसर आता है तो ऐसे वचन मुख से निकलते हैं जो हितकारी है जो हितकारी हों, पाप से रहित हों, यत्नपूर्वक बोला गया हो, पुराणपुरुषों के वर्णन में तत्पर हो और नूतनता से रहित हो, अर्थात् कपोलकल्पित कल्पनाओं से रहित हो और रत्न की तरह मूल्यवान् हो। मम, नन वर्णो की आवृत्ति से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।
सदेह देहं मलमूत्रगेहं बूया सुरामत्रमिवापदेऽहम्। तद्वोगयुक्तया निवद्धपांशु याति स्त्रवस्वेदनिवातिपाशु।।
इस जगत् में जिस शरीर को मलमूत्र का घर तथा मदिरा के पात्र के समान विपत्ति का कारण कहता हूँ झरते हुए पसीना के साथ जिसकी धूलि निकल रही है, ऐसे अपांशु - निष्प्रभु शरीर को योगी ध्यान की योजना से धारण करते हैं। विना स्थान के ही उसे जीवन पर्यन्त धारण करते हैं।
इसमें कवि ने नाद सौन्दर्य को वृत्यनुप्रास और अन्त्यानुप्रास के संयोग से चरम सीमा पर पहुंचा दिया।
कवि ने इसमें देह देह, पांशु पाशु की आवृत्ति की है। यमक अलडकार -
सत्यर्थे पृथगर्थायाः स्वरव्यंजनासंहतेः। - क्रमेण ते नैवा वृत्तिर्यमकं विनिगद्यते।।
यदि अर्थवान् हो तो भिन्न अर्थ वाले, स्वर-व्यंजन समुदाय की उसी 1. जयोदयमहाकाव्य, उत्तरार्ध, 25/9 . 2. वही.. 27/42 3. सा. दा. वही, 10/6
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