________________
जय रवे वरवेशवत् स्तव चरणयो रणयोधनयोः स्तव । बलवतां हृदयाय समुत्सवः स्तुतिकृतां रसनाभिनयो नवः ॥
हे न्यायमुक्त चेष्टा करने वाले और अपरिमित शासन करने वाले महाराज ! सर्वसमर्थ आपके लिए जो मैंने निरादर करने वाला प्रसंग उपस्थित किया, उसकी मनसा, वाचा, कर्मणा निन्दा कर रहा हूँ । हे प्रभो ! मेरा मन कभी भी आपके लिए अनादर करने वाला नहीं है
!
इसमें कवि ने नुप्रास के माध्यम से अर्थ को प्रभावपूर्ण बनाया है। इसमें व व, र र, त त वर्णों की आवृत्ति हुई है ।
इति वर्त्मविवर्तवार्तया सहसाप्तानि पदानि सेनया । पदवीह दवीयसी च या समभूत्सापि तनीयसी तया ॥
कवि ने इसमें मार्ग का वर्णन किया है। मनोहारी वार्तालाप से मार्ग में अनेक प्रकार का वार्तालाप करते हुए सेना ने शीघ्रतापूर्वक गमन किया, जिससे कि वह बहुत लम्बा मार्ग भी छोटा सा प्रतीत होने लगा ।
इसमें अनुप्रास के द्वारा कवि ने नाद सौन्दर्य की सृष्टि की है। इस श्लोक में वव, तत, नन वर्णों की आवृत्ति हुई है ।
ततत्यजेदं भभभाजनं दुदुद्रुतं ते मुमुखासवं तु । बध्वा ददेदेहि पिपिप्रियेति मदोक्तिरेषालि मुदे निरेति ॥
मदिरा के नशे में किसी स्त्री की वाणी अस्पष्ट तथा पुनरुवत हो गई । वह प्रिय से कहती है कि मदिरा का यह पात्र शीघ्र ही छोड़ों । मुझे अपने मुख की मदिरा दे दो । स्त्री की यह अस्पष्ट तथा पुनरुक्त वाणी सखी के हर्ष के लिए निकल रही थी ।
यह वृत्यनुप्रास का सुन्दर उदाहरण है। इसमें भभ, द द, मु मु, की अनेक बार आवृत्ति हुई है । वृत्यनुप्रास के द्वारा कवि ने वर्णों की आवृत्ति से जिह्वा का लड़खड़ाना सूचित किया है। जो हमें मत्तदशा का बोध कराता है । विभववानहमित्यतिहाससिन् सुभग किं तनुषे ननु शेमुषीम् । कुटकुटीघटमेहि नु यो भृतः स वशिको वशिकोऽथ भृशं भृतः ॥
हे अत्यधिक साहस करने वाले भले आदमी! मैं विभवान् हूँ ऐश्वर्यशाली हूँ ऐसी बुद्धि क्यों करता है, तू रैहट के घट को अच्छी तरह देख, जो भरा है वह खाली हो जाता है और जो खाली है वह भर जाता है । तात्पर्य यह है कि
2. वही, 13/41
4. वही, उत्तरार्ध 25/9
195
1. जयोदयमहाकाव्य, पूर्वार्ध, 9/9 3. वही, उत्तरार्ध 16/50