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"तददोषौ शब्दार्थो सगुणावनलंकृती पुनः क्वापि'" आचार्यो ने अलंकार के दो भेद किये हैं - 1. शब्दालंकार 2. अर्थालडकार
अनेक कवियों ने अपने काव्य में अलंकारों का विशेष प्रयोग किया है। उन्हीं के कारण वह प्रसिद्धि को प्राप्त हुये जैसे कालिदास की उपमा उनके कृतित्व को यशः प्रदान करती है। वही भारवि का अर्थगौरव भी विशेष महत्व प्रदान करने वाला है। नैषध काव्य में उपमा, पदलालित्य और अर्थ गौरव तीनों स्वरुप प्राप्त होते है।
अनेक कवियों, नाटककारों ने अनेक अलंकारों का प्रयोग करके अपने अपने ग्रन्थ के सौन्दर्य को मोहकर बनाया है। वहीं आज के युग के कविवर शिरोमणि स्व. 108 ज्ञानसागर जी ने अपने महाकाव्य "जयोदय" व अन्य महाकाव्यों में अनेकों अलंकारों का प्रचुर मात्रा में प्रयोग करके मंत्रमुग्ध कर दिया है।
आचार्य ज्ञानसागर जी का काव्य जयोदय में जिन अलंकारों का प्रयोग बहुलता से किया गया है। वे इस प्रकार हैं -
अनुप्रास, श्लेष, उत्प्रेक्षा, उपमा, रुपक, दृष्टान्त, अर्थान्तरन्यास, वक्रोचित, समासोक्ति, विरोधाभास, यमक आदि।
इनके द्वारा प्रयुक्त अलंकारों का व्यवहार अन्य कवियों से सर्वथा भिन्न है। इनके काव्य में अलंकारों का प्रयोग एहिलौकिक, पारलौकिक सुख प्राप्ति के लिए किया गया है। साथ में इसमें वैराग्य भाव भी प्रतिबिम्बत होता है।
शब्दालडकार अनुप्रास -
अनुप्रासः शब्दसाम्यं वेषम्येऽपि स्वरस्य यत्' विश्वनाथ कविराज के अनुसार स्वर की विषमता रहने पर भी शब्द अर्थात् पद पदांश के साम्य को. अनुप्रास कहते हैं। स्वरों की समानता हो चाहे न हो परन्तु अनेक व्यंजन जहाँ एक से मिल जाये वहाँ अनुप्रास अलंकार होता है। अनुगामिनी प्रकृष्ट रचना का नाम अनुप्रास है।
अनुप्रास पाँच प्रकार का होता है।
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1. का. प्र. सूत्र 1, प्र. उल्लास, 2. सा. दा. 10/2