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षष्ट अध्याय
अलङकारगत चमत्कार तथा जयोदय अलडकारगत चमत्कार :
वैदिक ऋषियों ने समाहित चित्त से जो मंत्रों का साक्षात्कार किया, वे अलंकारमय हैं। ऋग्वेद में अनेक स्थलों पर अलंकारों का चमत्कार परिलक्षित होता है। काव्य में अलंकार का प्रयोग वैदिक काल से ही हो रहा है। अलंकार अभिव्यक्ति की एक सशक्त प्रणाली। अलंकार से विभूषित होकर साधारण वाक्य भी मनोहारी व चारूत्व पूर्ण हो जाता है। जिस प्रकार सुन्दर वस्त्र तथा आभूषणों से अलंकृत स्त्री और भी कमनीय हो जाती है, उसी प्रकार काव्य में सुन्दर शब्द व अर्थ के विन्यास से कविता में सौन्दर्य की अभिवृद्धि होती है। यही अभिवृद्धि काव्य में अलंकार के नाम से जानी जाती
दण्डी ने भी "काव्यादर्श' में काव्य की शोभा बढ़ाने वाले धर्मो को अलंकार कहा है।
... "काव्यशोभाकरान् धर्मान् अलंकारन् प्रचक्षते"
आलंकारिकों के दो मत हैं जो प्रारम्भ के वामन, दण्डी, उद्भट, भामह, रुद्रट आदि आलंकारिक अलंकार को व्यापक काव्य तत्त्व के रूप में स्वीकार करते हैं। "अलंकरोति इति अलंकारः" शरीर को विभूषित करने वाले अर्थ या तत्व को अलंकार कहा जाता है। आलंकारिक अलंकार से विहीन काव्य को काव्य की श्रेणी में नहीं रखते हैं। वे अलंकार को काव्य का प्राणाधार मानते हैं।
उनके मतानुसार किसी तथ्य, घटना, अनुभूति या चरित्र को प्रभावपूर्ण बनाने के लिए काव्य में अलंकार का प्रयोग आवश्यक है। .
__ लेकिन अभिनवगुप्त, राजशेखर, आनन्दवर्धन मम्मट आदि आलंकारिक अलंकार को प्रधान तत्व न मानकर इसे शोभावर्धक धर्म मानते हैं। काव्य में अलंकारों की स्थिति अपरिहार्य नहीं है। ऐसा मम्मट का मानना है। उनके मतानुसार अलंकार की सत्ता है तो उससे काव्य की शोभा बढ़ जायेगी यदि काव्य में अलंकार नहीं है तो काव्यत्व की हानि नहीं होगी।