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नायिका के कपोलों पर जो पत्रोपलक्षित लता का आकार बना हुआ था वह ऐसा जान पड़ता था मानों भूर्जपत्र पर मन्त्र के वीजाक्षर लिखे गये हों। कंपोलों के दोनों और कुण्डल ऐसे जान पड़ते थे मानो मन्त्र में प्रयुक्त होने वाले "ठः ठः" नामक बीजाक्षर हों। नाभि के पास जो काली - काली रोमावली थी वह ऐसी लगती थी मानों नाभि रुपी यज्ञ कुण्ड से धूम की पडित उठ रही हो और मध्यभाग में स्थित सुवर्ण मेखला ऐसी जान पड़ती थी मानों मन्त्र साधक के उपयोग में आने वाली जप की माला स्मरणी ही हो।
शब्दों के द्वारा नायिका का वर्णन रमणीय हो गया है तथा अर्थ भी चमत्कार पूर्ण है।
देवीति यासो नवनीतसम्पत्तयोदियायाभ्युदितानुकम्प। दुग्धस्य धारेव किलाल्पमूल्यस्तत्रा नुयोगो मम तक्रतुल्यः॥
सुलचोना जयकुमार से कहती है कि दयाधारी स्वामिन् ! यह जो देवी है, वह दूध की धारा के समान नवीन रूप से प्राप्त सम्पत्ति के रुप में उदित हुई है, अथवा मक्खनरुप सम्पत्ति के रुप में उत्पन्न हुई है। इस विषय से मेरा . संयोग तो तर्क के समान अल्पमूल्य है, अर्थात् कोई मूल्य नहीं रखता। .. जिस प्रकार तर्क के संयोग से दूध दही रुप प्राप्त होता हुआ स्वयं मक्खन बन जाता है, उसी प्रकार मेरे निमित्त मात्र से प्राप्त नमस्कार मन्त्र के ग्रहण करने से यह देवीपर्याय को प्राप्त हो गयी। इसके देवी बनाने में मेरा कुछ मूल्य नहीं है।
शब्दार्थगत चमत्कार रमणीय है। शब्दार्थगत का मंजुल निदर्शन द्रष्टव्य है - गोपतिर्जनतयासि भाषितोऽस्माकमाशु गुणवढ्षस्त्वकम्। आह सोऽथ वदतीतरे जयः किन्न गोत्रिगुण एव भो भवान्।
हस्तिनापुर में जयकुमार का हेमाङगद आदि सालों के साथ हास्य विनोद। किसी साले के द्वारा जयकुमार के लिए यह कहा जाना कि आप जनता के द्वारा गोपति गायों के पति (पक्ष में पृथ्वी पति) कहे जाते है, इसलिए हम लोगों के लिये भी आप शीघ्र ही गुणवदवृषः रस्सी सहित बेल हैं, (पक्ष में गुणसहित धर्म है) इस प्रकार किसी अन्य के कहने पर जयकुमार
1. जयोदयमहाकाव्य, उत्तरार्ध, 20/84 2. वही, 21/85