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शब्दार्थगत चमत्कार रमणीय हैं। शब्दार्थगत का मनोहारी उदाहरण देखिए - सारं सुधांशोः समवाप्यमध्यात् कृतो कपोलो सुषुमैकसिद्धयाः। तज्जम्भपीयुषलवोपलम्भाद व्रणः पुनस्तत्र कलडकदम्भात्॥
जयकुमार सुलोचना के गालों की प्रशंसा करता हुआ कहता है कि चन्द्रमा के मध्यभाग में सार प्राप्तकर सौन्दर्य की अद्वितीय सिद्धि से युक्त सुलोचना के दोनों कपोल (गाल) रचे गये, क्योंकि दोनों कपोलों के अन्दर दाँरुपी अमृत के अंश पाये जाते हैं, और चन्द्रमा में कलङक के क्षण से घाव दृष्टिगोचर हो रहा है। अगर चन्द्रमा के सार से उसके कपोल न रचे गये होते तो उनके अन्दर दातों के रुप में अमृत के अंश कैसे पाये जाते, तथा चन्द्रमा के बीच में काला - काला धब्बा कैसे होता ?
शब्दार्थगत चमत्कार चमत्कृति से परिपूर्ण है। शब्दार्थ गत का ललित उदाहरण द्रष्टव्य है - निजकीर्तिकुलानि कुल्यराद सुगुणश्रेणिसमुत्थितान्यसौ।
शिविराणि जनाश्रयोचितान्यवलोक्याप मुदं सुदर्शनी॥
जब जयकुमार ने हस्तनापुर की ओर प्रयाण किया तब वे रास्ते में गंगा नदी के तट पर रुके। वहाँ पर तम्बू लगे हुये थे उन्हें देखकर जयकुमार बहुत प्रसन्न हुआ, क्योंकि वह कुलीन था। अतः उसने उन तम्बुओं को अपनी कीर्ति के कुल सरीखे समझा तथा वे तम्बू गुण श्रेणी समुत्थित थे अर्थात् लम्बी लम्बी रस्सियों से कसकर उठाये हुए थे। कीर्तिवाले कुल भी उत्तम गुणों के समूह द्वारा ही प्राप्त होते हैं और ये तम्बू भी उत्तम मनुष्यों के आश्रय के योग्य थे।
शिष्ट वर्णन से शब्द व अर्थ में चारुता आ गयी है। शब्दार्थगत का एक अन्य उदाहरण -
भूर्जप्रायकपोलके दललताव्याजेन बीजाक्षराः प्रान्ते कुण्डलसम्पदो विलसतो युक्ती ठकारो तराम्। लोमालीति च नाभिकुण्डकलिता श्रीधूपधूमावली - सज्जीयाज्जपमालिका गुणवतीयं हेमसूत्रावली
1. जयोदयमहाकाव्य, पूर्वार्ध, 11/63 2. वही, 13/66 3. वही, उत्तरार्ध 16/82
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