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जयकुमार की यह दृष्टिरुपीचकोरी सबसे पहले सुलोचना के मुख रुपी चन्द्रमा पर गयी, क्योंकि (मुख और चन्द्रमा में एक विशेषता है कि) चन्द्रमा कुमुदवृन्द को प्रसन्न (विकसित) करता है और सुलोचना का मुख पृथ्वी पर प्रसन्नता का प्रसार करता है।
__श्लेष, रुपक, सङकर अलंकार के द्वारा शब्दार्थ में चमत्कार दृष्टिगोचर होता है।
शब्दार्थगत का मनोहारी उदाहरण - खगावली रागनिवाहिनी हाऽथ स्पर्शमात्रेण नृणां मदीहा। हृदि प्रविष्टा गणिकेव दिष्टा निमीलयेन्नेत्रनिकोणमिष्टा।।
अर्ककीर्ति ने स्वयंबर विरुद्ध जब जयकुमार से युद्ध की घोषणा की तब दोनों के बीच युद्ध हुआ, उसी का वर्णन हमें मिलता है।
___ मैं सोचता हूँ कि बाणों की परम्परा को महापुरुषों ने वेश्या के समान ठीक ही कहा है जो नेत्रकोणों को मूंद देती है। बाणावली और वेश्या स्पर्शमात्र से राग उत्पन्न करती है और अंगीकृत करने पर मनुष्यों के हृदय में प्रविष्ट हो जाती है।
श्लिष्टोपमा के द्वारा शब्दों में चमत्कार उत्पन्न होता है तथा अर्थ भी सरलता से हृदयंगम हो जाता है।
शब्दार्थगत की एक और बानगी दृष्टव्य है -
करौ विधेस्तस्तववरो धियापि संवेदनस्येयमहो कदापि। नमोऽस्त्वनडगाय रतेस्तु भर्वे स्मृत्येव लोको त्तररुपकचें।
जब जयकुमार व सुलोचना को पाणिग्रहण के लिए विवाह मण्डप में लाया जाता है तब जयकुमार सुलोचना के रूप सौन्दर्य के बारे में सोचता है कि ज्ञान से युक्त विधाता के दोनों हाथ तो निर्बल है, क्योंकि व साधन हीन है, आत्ममात्र सापेक्ष है, अत: उनसे सुलोचना के सलोने रुप की रचना सम्भव नहीं और वेदनायुक्त होने से विधाता की बुद्धि के द्वारा भी सुलोचना की रचना का कब चिन्तन किया गया ? सच तो यह है कि विधाता इसके निर्माण की तो जाने दीजिये उसके विचार करने में भी असर्थ है। अडरहित होने पर भी केवल स्मरणमात्र के बिना किसी अभ्यास के लोकात्तिशायी रूप को उत्पन्न करने वाले रतिपति के बिना किसी अभ्यास के लोकात्तिशायी रुप को उत्पन्न 1. जयोदयमहाकाव्य, पूर्वार्ध, 8/33 2. वही, 11/85