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उदाहरण देखिए - - अनुकूले सति सुरथे विदां मुखाब्जान्यगुश्च मोदपथे।
प्रतिकूले म्लानान्यपि तस्मिन् मूर्तेः प्रभावत्याः॥ स्वयंबर समारोह में सभी राजाओं का आगमन होता है। विद्या देवी एक-एक करके राजाओं का परिचय कराती है। जब वह सुलोचना को लेकर राजाओं के पास जाती है तो उस समय की उनकी मानसिक दशा का मर्मस्पर्शी चित्रण यहाँ मिलता है।
प्रभावती मूर्तिवाली उस सुलोचना का रथ अपनी और मुड़ने पर उन विद्वा विद्याधरों के मुख-कमल खिल उठे और उसके प्रतिकूल होने पर पुनः वे (मुखकमल) ठीक उसी तरह मुरझा गये, जिस प्रकार प्रभा शरीर सूर्य के अनुकूल (सम्मुख) होने पर विकसित होते हैं और उसके प्रतिकूल होने पर संकुचित हो जाते है।
सोमजोज्जवलगुणोदयान्वयाः सम्बभुः सपदि कौमुदाश्रयाः।
येऽर्कतेजसवशंगताः परे भूतले कमलतां प्रपेदिरे॥ जब सुलोचना जयकुमार के गले में वरमाला डाल देती है तब अर्ककीर्ति को रोष आ जाता है। वह युद्ध की घोषणा करता है। तो जयकुमार व अर्ककीर्ति की सेना में लोगों का विभाजन हो जाता है।
सोम या चन्द्रमा के गुणों से प्रेम रखने वाले रात्रि विकासी कुमुद होते हैं जबकि कमल (अपने विकास के लिए) सूर्य के अधीन होते हैं। इसी प्रकार जयकुमार भी सोमनायक राजा से उत्पन्न और सहिष्णुतादि उजद्जवल गुणों से युक्त थे। अतः उनके अनुयायी लोग शीघ्र ही कौमुदाश्य हो गये। अर्थात् भूमण्डलपर हर्ष के पात्र बने। किन्तु जो अर्ककीर्ति के प्रताप के अधीन यानी उसके पक्ष में थे, वे कमलता को प्राप्त हुए। अर्थात उनके क आत्मा में मलिनता आ गयी। भव यह है कि जयकुमार के पक्ष वाले तो प्रसन्न हो उठे, पर, अर्ककीर्ति के पक्ष वाले निराश हो गये।
श्लेष के माध्यम से शब्दों में वारुता व अर्थ में लावण्य आ गया है।
प्रेम्णाऽऽस्यपीयूषमयूखवन्तं समुज्जवलं कोमुदमेघयन्तम्। परा तु राजीवदृशः किलोरीचकार राज्ञो दृगियं चकोरी।।
जब सुलोचना को पाणिग्रहण संस्कार के लिए बुलाया जाता है तब 1. जयोदयमहाकाव्य, पूर्वार्ध, 6/11 2. वही, 7/86
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