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यमक अलंकार के माध्यम से शब्दों में वारुता आ गयी है । अथ4 भी लालित्य से परिपूर्ण है ।
शब्दाथ4 गत का मनोहारी उदाहरण देखिए
मुकुरादिसमाधोरं मौक्तिकादिसमन्वितम् । नवविद्रुमभूयिष्ठमुद्यानमिव मञ्जुलम् ॥
काशी नरेश अकम्पन ने अपनी पुत्री सुलोचना के लिए स्वयंबर मण्डप को इस प्रकार सजाया था कि वह बगीचे की तरह लग रहा था ।
वह मण्डप किसी बगीचे की तरह परम सुन्दर है। कारण जैसे कोई बगीचा कलियों से भरा होता है वैसे ही इस मण्डप में चारों और दर्पणादि लगे हुए है। बगीचे में मोतियाँ आदि पुष्पों के पौधे होते हैं तो इसमें भी मोती लटक रहे हैं। बगीचे में नयी कोपलें दिखायी देती हैं तो यह मण्डप भी मूँगों की झालर आदि से व्याप्त है ।
कवि श्लिष्टोमा के माध्यम से शब्दों व अर्थो को प्रभावपूर्ण बनाया है । शब्दार्थगत की एक बानगी द्रष्टव्य है
भूरिधान्यहितवृत्तिमती तन्निर्जरत्वमधिगंन्तुमपीतः । संविकाशयति वा जडजातमप्युदर्कमनुयात्यथवाऽतः ॥
यह शरद किसी भली स्त्री की तरह है जो निर्जरपन ( देवतापन) प्राप्त करने के लिए अनेक प्रकारों से औरों का भला करने में लगी रहती है शरदऋतु भी निर्जरपन ( जलरहितता) प्राप्त करती हुई अनेक प्रकार के धान्यों की सम्पत्ति देने वाली है । भली स्त्री मूर्ख के पुत्र को भी समझाकर ठीक मार्ग पर ले आती है। तो शरदऋतु कमल को विकसित करती है । भली स्त्री भविष्यत् सौभाग्यवृत्तान्त को प्राप्त करती है तो शरदऋतु भी प्रचण्ड सूय को धारण करती है ।
शिलष्ट पदों से ये दोनों अर्थ निकलते हैं । इन्हीं के द्वारा शब्दार्थगत चमत्कार उद्दीप्त होता है ।
चतुर्दसगुणस्थानमुखेन शिवपूर्गता । शुक्लेन वाजिना तेनारात्रिमार्गानुगामिना ।
जयकुमार सुलोचना के स्वयंबर के लिए काशी नगरी जाते हैं उसी का वर्णन है कि - चौदह लगामों वाले मुख के धारक जल जल-थल आकाश 1. जयोदयमहाकाव्य, पूर्वार्ध, 3/75
2. वही, 4/58
3. वही, 3 / 114
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