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थे । तात्पर्य यह है कि समवसरण में कलश, श्रृंगार, ध्वजा, दर्पण, छत्र, चमर, व्यंजन और स्वस्तिक ये आठ मङगल द्रव्य विद्यमान थे, जो आठ मङ्गल द्रव्य न होकर ज्ञानावरणादि आठ कर्मों के परिवर्तित रुप थे ।
इसका अर्थ हृदयग्राही है ।
शब्दार्थगत चमत्कार - शब्दार्थ गत चमत्कार वहाँ पाया जाता है जहाँ जिस श्लोक में शब्दों की चारुता, सौन्दर्य हो तथा अर्थ रमणीय हो वहाँ शब्दार्थगत चमत्कार होता है।
इसमें दोनों का होना अति आवश्यक है। केवल शब्दों के मनोहारी होने से शब्दाथ4गत चमत्कार नहीं हो सकता है उसी प्रकार केवल अर्थ में रमणीयता होने से इसे चमत्कार की श्रेणी में नहीं रख सकते हैं । जिस श्लोक में दोनों ही अपना चमत्कार दिखायेंगे, वहीं पर शब्दार्थगत चमत्कार होगा ।
आचार्य ज्ञान सागरजी ने अपने जयोदय महाकाव्य में अलंकारों के द्वारा शब्दों तथा अर्थ को प्रभावपूर्ण तथा सौन्दर्यमण्डित बनाया है। श्लेष व वक्रोक्ति के द्वारा अधिक चमत्कार उत्पन्न हुआ है ।
शब्द वैमत्य व अर्थ वैमत्य से युक्त चमत्कार पूर्ण वाक्य सहृदये के हृदयों को अपनी ओर आकृष्ट करते हैं। पं. ज्ञानसागर जी ने इस काव्य में ऐसे ही चमत्कारी वाक्यों का प्रयोग किया है ।
शब्दार्थगत चमत्कार का उदाहरण
कुक्षणे स्मोद्यतते मुदा सः सुरक्षणेभ्यः सुतरामुदासः । बबन्ध मामुष्यपदं रूषेव कीर्तिः प्रियाऽवाप दिगन्तमेव ॥
वह राजा शुभ लक्षणों से तो दूर था और बुरे स्वभाव में प्रसन्नता पूर्वक लग रहा था, इसलिए रोष के कारण ही मानो उसकी माँ ने उसके पैर बांध दिये और उसकी कीर्तिनाम की अर्धागिनी रुष्ट होकर दिगन्त में चली गयी । यह तो निन्दापरक अथ4 है किन्तु स्तुति परक मूलार्थ इस प्रकार है राजा जयकुमार देवताओं द्वारा मनाये जाने वाले उत्सवों से भी उदास रहकर पृथ्वी के संरक्षण में उद्यत रहता था । इसलिए लक्ष्मी तो उसके पैरों को चूमती थी और उसकी कीर्ति संसार में दिगन्तव्यापिनी हो गयी ।
वह
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यहाँ शब्दमय चमत्कार के साथ अर्थ भी हृदयावर्जक है । अतः यहाँ शब्दार्थगत चमत्कार है ।
1. जयोदयमहाकाव्य, पूर्वार्ध, 1/45
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