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________________ जल के समान क्षीयमान है। इसलिये ज्ञानीजन इनके विषय में समय की अवधि न करें, अर्थात् ऐसा विचार न करें कि यह वस्तु इतने समय तक हमारे पास रहेगी। जयकुमार को संसार की क्षण भंगुरता के ज्ञान में अर्थ सौन्दर्य दृष्टिगत होता है। - स्नवदिहो न तथा न दशानतरमपि तु मोहतमोहरणादरः। लसति बोधनदीप इयान् यतः विधिपतङगणः पतति स्वतः॥ विवेकी मनुष्य को किसी पदार्थ मं न स्नेह राग होता है और न राग के विपरीत द्वेष होता है। उसको तो मोहरुप अन्धकार को दूर करने का ही आदर होता है। ज्ञानरुप दीपक ही ऐसा है कि जिस पर कर्मरुप पतंगे स्वयं पड़ते हैं नष्य होते हैं। किसी मनुष्य को न मोक्ष मार्ग में स्नेह-राग रुप तैल है और न संसार मार्ग में दशान्तर द्वेष अथवा बत्ती है, फिर भी वह मोहरुपी अन्धकार को नष्ट करने में आदर रखता है उसका यह कार्य इस कहावत के अनुसार है कि न तैल न बाती, उजियाला में रहेंगे। अतः ज्ञानरुपी दीपक को प्रज्वलित करना चाहिये, अर्थात् विवेकपूर्वक धर्माचरण करना चाहिए। उसी से कर्म निर्जरा का योग प्राप्त होता है। उद्बोधनपरक यह श्लोक अर्थगत चारूत्व से परिपूर्ण है। अर्थगत का एक और मनोहारी उदाहरण देखिए - . .. गरवद वरवस्तुयोगतः प्रकृतं तीर्थकृतः प्रयोगतः। अपवृत्य कि कर्मकाष्टकं भवतीदं भुवि मडगलाष्टकम् जब जयकुमार को वैराग्य भाव की उत्पत्ति होती है तब वह अपना राज्य अपने पुत्र को सौंपकर सांसरिक बन्धनों का परित्याग कर देते हैं। इसके पश्चात् वह आदिनाथ के समवसरण में जाते हैं, उसी समवसरण का वर्णन किया गया है व तीर्थकर की महिमा बतायी गयी है। जिस प्रकार रसायन आदि उत्कृष्ट वस्तु के संयोग से विषय नैषध रुप में परिवर्तित हो जाता है उसी प्रकार तीर्थकर के संयोग से ज्ञानावरणादि आठ कर्म भी परिवर्तित होकर समवसरण भूमि में आठ मङगल द्रव्य रुप हो गये 1. जयोदयमहाकाव्य, उत्तरार्ध, 25/69 2. वही, 26/53 3666666 179
SR No.006277
Book TitleAacharya Kshemendra Dwara Pratipadit Chamatkaratva ke Pariprekshya me Aacharya Gyansagar Dwara Virachit Jayoday Mahakavya ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansagar
PublisherDigambar Jain Dharm Prabhavna Samiti
Publication Year2001
Total Pages310
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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