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________________ विपन्न पदरहित स्थान भ्रष्ट अथवा निष्किरण हो नीचे गिरना चाहता है । आश्चर्य है कि मदिरा पान का ऐसा कुप्रभाव होता है । कवि ने सूर्यास्त का कितना स्वाभाविक वर्णन किया है । मदिरा पान जैसे बुरे व्यसन का कुप्रभाव सूर्य की लालिमा से करके अर्थ को चमत्कारी बना दिया गया है । एक और उदाहरण द्रष्टव्य है विधुबन्धुरं मुखमात्मनस्त्वमृतैः समुक्ष्यार्काडिकतं कृत्वा करं मृदुनांशुकेन किलालकच्छविलाञ्छितम् । भासूरकपोलतलं पुनः प्रोञ्छयागुरुपत्राडक भा भावेन विस्मितकृत् स्वतोऽ भादपि तदा नितरां शुभा ॥ इसमें प्रात:काल के वर्णन में सुलोचना की मानसिकता का वर्णन किया गया है । शोभनाडगी सुलोचना ने प्रात: बेला में सूर्य की प्रभा से चिह्नित अपने चन्द्रमा के समान सुन्दर मुख को अमृत दूध या जल से धोया । धोते समय उसके हाथ में केशों की काली कान्ति पड़ी। जिसे उसने कोमल वस्त्र से पोंछा, देदीप्यमान कपोल तल में जब केशों की कान्ति पड़ी, तब उसने उसे अगुरु पत्र से चिह्नित जैसा मानकर साफ किया । यह करते हुए उसे विस्मय हो रहा था कि बार-बार साफ करने पर भी यह काला दाग दूर नहीं हो रहा है। इस तरह सब करती हुई अत्यन्त सुशोभित हो रही थी । यहाँ अर्थगत की मनोहारी छटा दर्शनीय है लवणिमाजदलस्थजलस्थितिस्तरुणिमायमुषोऽरूणिमान्वितिः । लसति जीवनमञ्जलिजीवनमिह दधात्ववधिं न सुधीजनः ॥ जयकुमार व सुलोचना जब कैलाश पर्वत की यात्रा पर जाते हैं तब वहा कांचना नामक देवी जयकुमार के शील की परीक्षा के लिए उनसे संभोग की इच्छा करती है । जयकुमार अपने शील से विचलित नहीं होते हैं और इस घटना से उनमें वैराग्य भाव की उत्पत्ति होती है तथा उन्हें संसार की निःसारता का ज्ञान होता है कि - लावण्य कमलदल पर स्थित जल के समान है, यौवन प्रातःकाल की लालिमा का अनुसरण करने वाला है और मनुष्य का जीवन अंजलि में स्थित 1. जयोदयमहाकाव्य, उत्तारार्ध, 18/103 2. वही, 25/5 178
SR No.006277
Book TitleAacharya Kshemendra Dwara Pratipadit Chamatkaratva ke Pariprekshya me Aacharya Gyansagar Dwara Virachit Jayoday Mahakavya ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansagar
PublisherDigambar Jain Dharm Prabhavna Samiti
Publication Year2001
Total Pages310
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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