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________________ साथ कर दिया। उसके पश्चात् उन्होंने अपने सुमुख नामक दूत को सन्देश देकर अर्ककीर्ति के पिता राजा भरत के पास भेजा। वह दूत इतना प्रभावित हुआ कि वह कहने लगा - हे प्रभो! आपके इन दोनों चरणकमलों को पाकर चित्त की एकाग्रता को प्राप्त मेरा यह चित्त भ्रमर आपके सौगन्ध के बोध से भली भाँति बंध गया है। वह कहीं अन्यतः जाना नहीं चाहता। . इसका अर्थ सौन्दर्य अद्वितीय है। इस कारण से यहाँ अर्थगत चमत्कार है। अर्थगत चमत्कार की एक और बानगी द्रष्टव्य है - . अस्या विनिर्माणविधा वहुण्डं रसस्थलं यत्सहकारिकुण्डम्। सुचक्षुषः कल्पितवान् विधाता तदेव नाभिःसमभूत्सुजाता॥ जब सुलोचना पाणिग्रहण संस्कार के लिए आती है तो जयकुमार उसको पाकर उसका मन क्रीडा करने लगा और उसके रुप सौन्दर्य के बारे में मन ही मन सोचने लगा कि - विधाता ब्रह्मा ने इस सुलोचना के निर्माण करने में जो सुन्दर जल का स्थान सहकारी कुण्ड बनाया था वही सुलोचना की नाभि के रुप में परिणत हो गया है। मकान बनाने के लिए जल आवश्यक होता है और उसके लिए कुण्ड बनाकर उसमें जल भरा जाता है। इसी प्रकार से सुलोचना के शरीर का निर्माण करते समय विधाता ने एक सुन्दर जलपूरित कुण्ड बनाया था जो बाद में सुलोचना की नाभि बन गया। कवि ने उत्प्रेक्षा के माध्यम से अर्थ को इतना प्रभाव पूर्ण बना दिया है कि चित्त को आकर्षित किये बिना नहीं रहता है। सुलोचना की नाभि की गहराई के लिए इतनी अच्छी उत्प्रेक्षा की है। किमु सोऽस्ति विचारकृत्पयोदः परियच्छनिह चातकाय नोदम्। अभिलाषभृतेऽ पर्वताय प्रतिनिष्कासयते ददाति वा यः। जब सुलोचना ने जयकुमार के गले में वरमाला डाली तब अकम्पन ने कहा कि मेरी पुत्री आपकी सेवा करने योग्य बने ऐसा मेरा निर्णय है। अकम्पन जयकुमार से कहते है कि वरराज। जो मेघ पानी चाहने वाले चातक को तो 1. जयोदयमहाकाव्य, पूर्वार्ध, 11/30 2. वही, 12/17
SR No.006277
Book TitleAacharya Kshemendra Dwara Pratipadit Chamatkaratva ke Pariprekshya me Aacharya Gyansagar Dwara Virachit Jayoday Mahakavya ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansagar
PublisherDigambar Jain Dharm Prabhavna Samiti
Publication Year2001
Total Pages310
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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