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स्मित किरणों से भासित हो रहे इस राजकुमारी सुलोचना के मुख के साथ तुलना के लिए तुला पर रखा गया चन्द्रमा पड़ गया। अतः उसकी पूर्ति के निमित्त दीख पड़ने वाले नक्षत्र नाम के छोटे - मोटे बाट शोभित हो रहे
सुलोचना का मुख इतना आकर्षित था कि उसकी तुलना के लिए चन्द्रमा की शोभा भी कम थी। उसकी पूर्ति के लिए नक्षत्रों की भी जोड़ दिया। लेकिन उसकी सोभा की पूर्ति फिर भी नहीं कर सके।
इसका अर्थगत चमत्कार अद्वितीय है। वह अपनी ओर आकृष्ट किये बिना नहीं रहता है।
अर्थगत का ललित दृष्टान्त देखिए - दुग्धीकृतेऽस्य मुग्धे यशसा निखिले जले मृषास्ति सता।
__ पयसो द्विवा व्यताऽसौ हंसस्य च तद्विचकत॥
सुलोचना की स्वयंबर सभा में आये हुए कांची नगर के राजा का परिचय कराती हुयी विद्यादेवी सुलोचना से कहती है कि हे मुग्धे ! इस राजा के समीचीन यश ने दुनिया भर के जल को दूध बना दिया है। अतः अब हंस का दूध और जल को अलग करने का कौशल और पयस शब्द दो अर्थो वाला (जल और दूध) होना व्यर्थ है।
इस राजा ने अपने यश से वह कार्य कर दिखाया जो केवल हंस का कार्य था। इन्होंने हंस के कौशल को भी नहीं बख्शा। ..
इसका अर्थ सहज ही हृदयंगम हो जाता है। अर्थगत की एक और बानगी द्रष्टव्य है -
देशान्तरेऽस्य कीर्तिर्बहुवृद्धे मागिरो पुनर्महिला।
नवयौवना त्वमुचिता निःशत्रोः शूरता शिथिला॥ विद्या देवी सुलोचना को जयकुमार का परिचय कराती हुयी सलहा देती है कि इसके चार स्त्रियाँ थी उनमें से पहली कीर्ति तो देशान्तरों में चली गयी। लक्ष्मी और वाणी अत्यन्त वृद्ध हो चली। चौथी शूर वीरता भी शत्रुओं के अभाव से शिथिल पड़ गयी। किन्तु तू नवयौवना है, इसलिए तुझे इसकी अर्धाङिगनी बन जाना उचित है।
1. जयोदयमहाकाव्य, 6/37 2. वही, 6/109
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