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क्योंकि वह भूमि सक्षम नहीं है । इसलिए हमें अन्न उत्पादन उपजाऊ भूमि पर ही करना चाहिए ।
इस श्लोक का अर्थ प्रभावपूर्ण है ।
अर्थगत का एक और ललित उदाहरण -
वाण्टवद् वृषमपेक्ष्य संहता घासवद्विषयदासतां गताः । पाशवद्धनविलासतत्परा गेहिनो हि सतृणाशिनो नराः ॥
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मुनिराज गृहस्थ मनुष्य की व पशु को एक समान बताते हुए कहते है कि गृहस्थ लोग पशुओं के समान सतॄणाभ्यव्यवहारी होते हैं क्योंकि पशु भोजन की तरह धर्म स्वीकार कर एकत्र होते हैं । अर्थात् जैसे पशु अपने पोषण के लिए पशु - भोजन खाते हैं ठीक उसी प्रकार गृहस्थ भी अपने हितार्थ ही धर्माचरण में संघटित होते हैं । पशु जिस प्राकर घास से पेट भरता है, उसी प्रकार गृहस्थ भी रूप - रसादि विषयों के दास दीख पड़ते है। साथ ही पशु जिस प्रकार रस्से से बंधा रहता है, उसी प्रकार गृहस्थ लोग धन के विलास में बंधे रहते हैं । अतः निश्चय ही मानव तृणभक्षी पशुतुल्य हैं ।
इसका अथ4 चारुतर ढंग से हृदयंगम होता है।
भास्वतः समुदयप्रकाशिनः क्षोद्रलेशपरिमुग्विकाशिनः । यत्र वारिजतुलाविलासिनः श्रीयुताः खलु सभानिवासिनः ॥
जयकुमार की सभा के सभासद कमल के समान विलासशाली होते थे, क्योंकि जिस प्रकार कमल सूर्य को देखकर प्रसन्न होते हैं अर्थात् खिलते हैं, उसी प्रकार सभासद भी विद्वानों को देखकर प्रसन्न होते थे । कमल जब खिलते है तब मधु के कणों को प्रकट करते हैं, वैसे ही वहाँ के सभासद स्वार्थ परायणता त्याग कर विकास युक्त थे ।
कवि ने अपनी अनुपम लेखनी से सभासद व कमल की बड़ी ही सुन्दर तुलना की है 1
आस्येन चास्याश्च सुधाकरस्य स्मितांशु भासा तुलया घृतस्य । उनस्य नूनं भरणाय सन्ति लसन्त्यमूनि प्रतिमानवन्ति ॥
जब सुलोचना स्वयंबर सभा में आयी तो उसकी शोभा देखने योग्य
थी।
1. जयोदयमहाकाव्य, 2/20
2. वही, 3/13
3. वही, 5/82
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