________________
इस श्लोक मे जयकुमार के अतुल शौर्यादि, पराक्रम, तेज का गुणगान करते हुए कहते हैं कि -
चन्द्रकिरणों को भी लजाने वाले, कपूर से स्वच्छ गुणों द्वारा गुथा यह जगत् रुप पहाड़ पुण्य की एकमात्र पवित्र मूर्ति राजा जयकुमार की कीर्ति गेंद बन जाती है, अर्थात् जैसे कोई स्त्री गेंद से खेलती है वैसे ही जयकुमार की कीर्ति जगत् रूप गेंद से खेलती है।
जयकुमार की ख्याति इतनी थी कि उसके वश में सब कुछ था। अपने पराक्रम से वह संसार को गंद की भाँति खेलता है। अपने पराक्रम से उसने हर एक को असंभव से संभव बना दिया था। . निःशेषयत्वम्बनिधीन् स्म सप्त तस्यात्र तेजस्तरणिः सुदृप्तः। . व्यशेयन् वा द्रुतमीर्षयार्य तकाञ्छतत्वेन किलारिनार्यः॥
जयकुमार के तेज का वर्णन करते हुए कहते हैं कि हे आर्य! देखो उस राजा के अत्यन्त देदीप्यमान न तेजरुपी सूर्य ने सातों समुद्रों को सुखा दिया था किन्तु इसके विपरीत उस राजा के शत्रुओं की स्त्रियों ने ईर्ष्यावश हो शीघ्र ही अपने रोदन द्वारा उन्हें सैकड़ों की तादाद में भर दिया।
तात्पर्य यह है कि उस राजा के तेज से अनायास ही शत्रु लोग काँपते और कितने तो मर ही जाते थे। अतः उसकी रानियों ने रो-रोकर सैकड़ों समुद्र भर दिये।
इस श्लोक की अर्थगत चारुता स्पष्ट है। अर्थगत का मञ्जुल निदर्शन द्रष्टव्य है -
तत्वभृद व्यवहृतिश्च शर्मणे पूतिभेदनमिवाग्रचर्मणे।
तवदूषरटके किलाफले का फरसक्तिरुदिता निरर्गले - मुनिराज जयकुमार को व्यवहार की उपयोगिता बतलाते हुए कहते है कि यथार्थ व्यवहार ठीक उसी तरह सुखकर होता है जिस प्रकार फोड़े की भेदना नवीन चमड़ा पैदा करने के लिए होता है। किन्तु अन्नोत्पादन शक्तिशून्य उसर भूमि में बीज बोने से क्या लाभ हो सकता है ?
__ यथार्थवाद को बतलाते हुए कहते है कि बंजर भूमि में बीज बोने से क्या लाभ हो सकता है क्योंकि उससे तो हम अन्नोत्पादन कर नहीं सकते
1. जयोदयमहाकाव्य, पूर्वार्ध, 1/26 2. वही, 2/5 .
6545844265555888054538454417165654
5056664560