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प्रस्तुत श्लोक में गृहस्थ के कार्य कलाप का वर्णन किया गया है।
गृहस्थ अपने हाथों का उपयोग उपर्युक्त कार्यो में करता है, परन्तु शीत उष्ण आदि परीषदों को प्रचुर मात्रा में सहन करने वाला हंसयोगी कंकड़ सहित पत्थर तथा कील आदि के भीतर घुस जाने से पीडायुक्त साधुओं के कर्कश स्पर्श वाले चरणों में हर्षपूर्वक कश प्रदान करता है। अर्थात् अपने हाथों से उनके पादमर्दन करता है। शब्दगत की एक और बानगी देखिए -
यो नाभिजातपत्रात्तं सिक्तवाथो मानसामृतैः।
शिखालुतां नयन् वातं कल्पद्रुममिवान्वगात्॥ ___ जयकुमार ने जब मुनि वेष धारण किया तब जयकुमार ने हीनजातीय पवन आदि को उदार भाव से अलंकृत कर चोटी धारी बनते हुए मानों परिवर्तन का वृक्ष ही खड़ा कर दिया था अथवा शुष्कप्राय वृक्ष को मानस सरोवर के जल से सींचकर पुनः पल्लवित हरा-भरा करते हुए कल्पवृक्ष के समान मनोहर कर दिया था। अथवा ध्यान मुद्रा में नाभिकमल से उत्पन्न वायु को हृदयकमल की वायु से मिश्रित कर तालुस्थ वायुता को प्राप्त करते हुए वांछित दायक होने से मानों कल्पवृक्ष बना दिया।
विशिष्ट शब्द योजना से चमत्कृति उत्पन्न हो रही है।
अर्थगत चमत्कार - जयोदय महाकाव्य में अर्थगत चमत्कार प्रायः देखने को मिलता है। आचार्य ज्ञान सागर जी ने अपने जयोदय महाकाव्य में अर्थगत चमत्कार का बहुत मात्रा में प्रयोग किया है।
अर्थगत चमत्कार वहाँ होता है जहाँ श्लोक का अर्थ हृगयंगम हो जाये, उस श्लोक का अर्थ इतना सशक्त हो कि वह अपनी ओर आकर्षित करके श्लोक के अर्थ का बोध करा दे। अर्थ वेमल्य के द्वारा ही काव्य उच्चकोटि की श्रेणी में आता है। अर्थ में चमत्कार कल्पना के द्वारा व नायकादि के रुप में उद्धभक्ति वक्ता की प्रतिभा के द्वारा कल्पित बी हो सकता है।
अर्थगत का मनोहारी उदाहरण देखिए -
गुणेस्तु पुण्येकपुनीतमूर्तेर्जगन्नगः संग्रथितः सुकीर्तेः। कन्दुत्वमिन्दुत्वि डनन्यचौरेरुपैति राज्ञो हिमसारगौरैः।।
1. जयोदयमहाकाव्य, 28/29 2. वही, 1/10 (पूर्वार्ध)
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