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________________ एक अन्य उदाहरण प्रस्तुत है - नाड्कं टडकमिवाशनिप्रतिकृतौ लेभे वचस्तद्धृदि हावादीहमनाङ न तत्परिणतिं प्रापोषरे बीजवत्। तस्याः किञ्च मनोरथोन्नतगिरि भेत्तुं वचोवज्रराट् श्रीस्तम्बेरमपत्तनेश्वरमुखादेव पुननिर्ययो॥ जयकुमार के शील की परीक्षा लेने के लिए रविप्रभ नामक देव ने अपनी कांचना नामक देवी को जयकुमार के पास भेजा। जिस प्रकार वज्र की प्रतिमा पर पत्थर तोड़ने वाली टांकी स्थान नहीं पाती है उसी प्रकार देवता के वचन जयकुमार के हृदय में स्थान नहीं प्रपात कर सके और जिस प्रकार भूमि में बीज अंकुरादि रुप परिणति को प्राप्त नहीं होते उसी प्रकार उसके हाव-भाव आदि भी जयकुमार के हृदय में कुछ भी परिणमन नहीं कर सके। उसके मनोरथरुपी उन्नत पर्वत को भेदने के लिए हस्तिनापुर के स्वामी जयकुमार के मुख से इस प्रकार का वनच रुपी श्रेष्ठ वज्र प्रकट हुआ। विशिष्ट शब्दों के माध्यम से शब्दगत सौन्दर्य में नवीनता आ गयी है। तनयाभिषवोत्सवक्रिया नृपतेर्निर्गमसम्भवदिघ्रया। गरलोत्तरलडुभुक्तिवदभवत् सभ्यजनाय पवितभृत्॥ जयकुमार को जब संसार से विरक्ति हो जाती है तब वह सभी सांसरिक बन्धनों को त्यागने का निश्चय करते हैं तथा अपना राज्य भार अपने पुत्र अनन्तवीर्य को सौंप देते हैं तो लोंगो का मन इस प्रकार अनुभव करता है - राजा जयकुमार के गृह त्याग से होने वाली लज्जा के कारण पुत्र अनन्तवीर्य के राज्याभिषेक सम्बन्धी उत्सव की क्रिया सभ्यजनों के लिए उस मोदक भुक्ति लड्ड - भुक्ति के समान हुई जिसमें खाने के बाद विष परिपाक होता है। तात्पर्य यह है कि जो मनुष्य राज्याभिषेक के समय उपस्थित थे उन्होंने पहले हर्ष का अनुभव किया उसके पश्चात् विषाद का। शब्दों के द्वारा राज्याभिषेक का वर्णन अनुपम है। शब्दगत का एक मजुल उदाहरण द्रष्टव्य है - स कंकरप्रस्तरशडकुनोदप्रतोदयोर्यच्छतु सप्रमोदः। कठोरयोः श्रीपदयोः कश (प) सच्छीतातपप्रायसहः सहसः। 1. जयोदयमहाकाव्य, पूर्वार्ध, 24/136 2. वही, 26/38 3. वही, 27/13
SR No.006277
Book TitleAacharya Kshemendra Dwara Pratipadit Chamatkaratva ke Pariprekshya me Aacharya Gyansagar Dwara Virachit Jayoday Mahakavya ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansagar
PublisherDigambar Jain Dharm Prabhavna Samiti
Publication Year2001
Total Pages310
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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