SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 172
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ हे सरस्वति ! तुम्हारा यह मार्ग कार्यकलाप शरद ऋतु के समान है, क्योंकि जिस प्रकार शरद ऋतु अनेकधान्यार्थकृत प्रवृत्ति अनेक प्रकार के अनाजों के उत्पन्न करने में प्रवृत्त रहती है उसी प्रकार आपका मार्ग भी अनेकधान्यअर्थकृतप्रवृत्ति अनेक प्रकार के अर्थ - अभिधेय व्यङग्य और ध्वन्य अथवा अनेक मनुष्यों के प्रयोजन सिद्ध करने में प्रवृत्त है और जिस प्रकार शरद ऋतु जडाशय जलाशयों की उद्धतता उद्वेलावस्था - मूर्ख मनुष्यों के अभिप्राय सम्बन्धी उद्दण्डता को नष्ट करती है। इस तरह जिस प्रकार शरद ऋतु मेघ जलाद का नाश करने के लिए है उसी प्रकार आपका मार्ग भी अद्य मेरे पापों का नाश करने के लिए हो । विशेष शब्द योजना के माध्यम से चमत्कृति के दर्शन होते है । शब्दगत की एक और बानगी दृष्टव्य है सापत्रपता यत्र तदेना जगतां कल्पतरुश्च निरेनाः । नवप्रवालोपादानाय शिशिरश्रियमनुबभूव चायस ॥ - सुलोचना व जयकुमार के दाम्पत्य जीवन का वर्णन इन पंक्तियों से पता चलता है कि पापरहित तथा दानशील होने से जगत के जीवों के लिए कल्पवृक्ष स्वयं स्वरुप राजा जयकुमार ने नवीन सुन्दर बालक प्राप्त करने के लिए उस समय सुलोचना का उपभोग किया, जिसमें आपत्ति से रक्षा करने की शक्ति विद्यमान थी और शिशिर ऋतु के समान जिसकी शोभा थी । सुलोचना . मानो शिशिर ऋतु रुप थी, क्योंकि जिस प्रकार शिशिर ऋतु में नवीन किसलयों की प्राप्ति के लिए पत्ररहितता होती है अर्थात् पतझड़ आ जाती है, उसी प्रकार सुलोचना में भी आपत्ति से रक्षा करने की शक्ति विद्यमान थी । शब्दगत चमत्कार दर्शनीय है। सुलोचना कान्तिसुधासरोवरी रसैरमुष्याः परिणाकोमलैः । वहन् बभावङ्कुरितां वपुर्लतां सदैव मुक्तफलतान्वितां जयः ॥ सुलोचना कान्तिरुपी अमृत की सरोवरी थी । उसके सहज कोमल रस से अडकुरित पुलकित अथवा स्वेदबिन्दुओं से सहित होने के कारण मुक्ताफलों से रहित के समान दिखनेवाली शरीर लता को धारण करते हुए जयकुमार सुशोभित हो रहे थे । 1. जयोदयमहाकाव्य, 22/9 2. वही, 23/7. 167
SR No.006277
Book TitleAacharya Kshemendra Dwara Pratipadit Chamatkaratva ke Pariprekshya me Aacharya Gyansagar Dwara Virachit Jayoday Mahakavya ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansagar
PublisherDigambar Jain Dharm Prabhavna Samiti
Publication Year2001
Total Pages310
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy