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________________ तेरा ही अंगभूत जन है, किसी कारण भूमण्डल पर तुमसे जो अलग हो गया, निश्चय ही इसका मुझे अत्यन्त खेद है। अतः आपसे फिर मिलना चाह रहा शब्दों के माध्यम से जयकुमार की उदारता, महानता का परिचय मिलता fosfor शब्दमय चमत्कार देखिये - हे छिन्नमोह जनमोदनमोदनाय - तुभ्यं नमोऽशमनृसंशमनोदमाय। निर्वृत्यपेक्षितनिवेदनवेदनाय - सूर्याय में हृदरविन्दविनोदनाय॥ जयकुमार जब विवाह मण्डप में आते है तो उनकी दृष्टि वेदी पर पड़ी तब वह जिन सूर्य को नमस्कार करते हुए कहते हैं - __ हे मोह रहित! लोकों को आनन्द प्रदान करने वाले प्रभो! शान्ति के शमन के लिए प्रेरक, स्वयं आनन्द स्वरुप, मुक्ति के लिए आवश्यक निवेदन के ज्ञाता, तथा मेरे हृत् कमल के विनोद हेतु सूर्य रुप आपको नमस्कार है। विशिष्ट शब्दों के द्वारा जयकुमार जिन सूर्य की स्तुति करते हैं। शब्दों में चमत्कृति अवलोकनीय है। शब्दगत का एक और निदर्शन देखिये - सम्पूततामतति तां वरराजपादे - . स्तस्मिन् सदम्बरावितान इतः प्रसादैः। तत्कालकार्यपरदारतरडगचारः शुद्धान्तसिन्धुरभवत्समुदीर्णसारः।। विवाह काल में अन्तःपुर की शोभा दर्शनीय थी। वह समुदर के समान प्रतीत हो रहा था। श्री जयकुमार के चरणों से पवित्रता को प्राप्त, सुन्दर वस्त्रों वाले मण्डप प्रान्त के हो जाने पर इधर प्रसादों से तत्काल कार्य में तल्लीन स्त्री रुपिणी तरङगों का प्रसार भीतरी भाग में उदवेलित हुआ अन्तःपुर ही समुद्र जैसा प्रतीत होता था। 1. जयोदयमहाकाव्य, पूर्वार्ध, 10/96 2. वही, 10/102
SR No.006277
Book TitleAacharya Kshemendra Dwara Pratipadit Chamatkaratva ke Pariprekshya me Aacharya Gyansagar Dwara Virachit Jayoday Mahakavya ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansagar
PublisherDigambar Jain Dharm Prabhavna Samiti
Publication Year2001
Total Pages310
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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