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________________ रणश्रियः केलिसरः सवर्णाः करीशकर्णात्ततया सपर्णा। वक्त्रैर्भटानां कमलावकीर्णा श्रीकुन्तलैः शेवलसावतीर्णा॥ अजस्त्रमाजिस्वसृजा प्रपूर्णा किलोल्लसत्कुङ्कुमवारिपूर्णा। यशः समा रब्धपरागचूर्णा स्म राजते सा समुदङ्गघूर्णा॥ जब जयकुमार व अर्ककीर्ति की सेना का आपस में युद्ध हो रहा था तब वह रणभूमि बावड़ी के समान लग रही थी। वह रणभूमि, रमश्री के केलिसरोवर सी बन गयी थी क्योंकि उसमें हाथियों के कटे पड़े कान पत्र के समान दीखते थे। योद्धाओं के मुखों सरीखे कमलों से वह भरी थी। यत्र तत्र बिखरे पड़े बाल से वार का काम कर रहे थे। उसमें जो रक्त भरा था, वह केशर के जल के समान था और जो शूरता दिखलाने वाले वीरों का यश फैल रहा था वह परागसदृश था। इस प्रकार इन सब सामग्रयिों से पूर्ण वह युद्धभूमि प्रसन्नता से इठलाती बावड़ी लग रही थी। रुपक अलंकार के द्वारा कवि ने शब्दों में बड़ा ही मनोहारी व हृदयावर्जक वर्णन किया है। शब्द-सौष्ठव अनुपम है। अडगीचकाराध्वकलडकलोपी हयरिजयं नाम रथं जयोऽपि। खरोऽध्वना गच्छति येन सूर्यस्तेनैब सोमोऽपि सुधोधधुर्यः।। जयकुमार व अर्ककीर्ति के बीच युद्ध का वर्णन है - नीतिमार्ग के दोषों को नष्ट करने वाले जयकुमार ने भी अरिञ्जय नामक रथ स्वीकार किया। कारण जिस रास्ते से तीक्ष्ण सूर्य जाया करता है, उसी रास्ते से अमृतवृष्टि कर्ता चन्द्रमा भी जाया करता है। शब्दों के चमत्कार से यह श्लोक चमत्कृति को प्राप्त होता है। शब्दगत का एक और उदाहरण - त्वदपरो जलबिन्दुरहं जनो जलनिधे मिलनाय पुनर्मनः। यदगमं भवतो भुवि भिन्नतां तदुपयामि सदैव हि खिन्नताम्॥ जब अर्ककीर्ति जयकुमार से पराजित हो जाता है तो उसको युद्ध करने पर गहरा दुःख होता है और वह लज्जित होता है। महाराज अकम्पन ने दोनों में सुलह करा दी। जयकुमार जीतकर भी अर्ककीर्ति से इस प्रकार कहता है कि हे जलनिधे! आप समुद्र के समान और मैं उसकी मात्र एक बूंद हूँ जो 1. जयोदयमहाकाव्य, पूर्वार्ध, 8/41-42 2. वही, 8/69 ___ 3. वही, 9/41
SR No.006277
Book TitleAacharya Kshemendra Dwara Pratipadit Chamatkaratva ke Pariprekshya me Aacharya Gyansagar Dwara Virachit Jayoday Mahakavya ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansagar
PublisherDigambar Jain Dharm Prabhavna Samiti
Publication Year2001
Total Pages310
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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