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यहाँ उत्तरार्द्धगत भाव ललित है। इससे समूचे पद्य में सौन्दर्य आ गया
एक और उदाहरण दृष्टव्य है - विषयमस्तमतिः प्रति मुह्यति नहि बिपन्न इतो पि विमु चति। मुहरहो स्वदिते ज्वलिताधरः स्विदभिलाषमपरो मरिची नरः॥
निबुद्धि मनुष्य विषय से विपत्ति में पड़ता हुआ भी उसके प्रति मोह करता है। उसे छोड़ता नहीं। जैसे चटपटा खाने का अभिलाषी मनुष्य ओठ के जलते रहने पर भी बार-बार मिर्च का स्वाद लेता है।
यह मनुष्य विषय वासनाओं में इतना लिप्त है कि वह उसके कारण विपत्ति में पड़ता है। लेकिन फिर भी वह उससे विरक्त नहीं होता है। जैसे मनुष्य होठ के जलते रहने पर भी मिर्च को बार-बार खाता रहता है।
सूक्ति की दूसरी पंक्ति में चमत्कार है।
शुद्धात्मसवित्तिरिहाभिरामा तवाथ में रागरुषोः सदा मा। नामासकौ सम्प्रति वाक्प्रवृत्तिरेकस्य लब्धिनं युगस्य दत्तिः।। राजा जयकुमार जिनेन्द्र भगवान् का कीर्तिमान करता हुआ कहता है -
हे प्रभो! आपके दो कल्याण की आधारभूत एक शुद्धात्मा की ही अनुभूति है, परन्तु मेरे रागद्वेष की अन्धकारपूर्ण अमावस्या है न मुखे एक शुद्धात्मा की अनुभूति हो सकती है और न रागद्वेष का देना देना हो सकता है। इसलिए लोकोक्ति प्रसिद्ध है कि लेना एक न देना दो।
चतुर्थ पाद से काव्य सौन्दर्य उत्पन्न हो रहा है। एक और मनोहारी उदाहरण देखिए - निरीहमाराध्य सुसिद्धसाध्यस्तवामस्तु भक्तो विगुणं विराध्य। चिन्तामणिं प्राप्य नरः कृतार्थ:किमेष न स्याद्विदिताखिलार्थ ।।
हे समस्त पदार्थों के ज्ञाता जिनेन्द्र ! भक्तजन अन्य गुणहीन देवों को छोड़कर इच्छारहित आपकी आराधना कर अपना मनोरथ सिद्ध कर लेते हैं। सो ठीक ही है, क्योंकि चिन्तामणि रत्न को प्राप्त कर क्या मनुष्य कृतार्थ नहीं होता है ? अर्थात् अवश्य होता है।
1. जयोदयमहाकाव्य 25/23 2. वही, 24/88
3. वही, 24/94