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स्त्रियाँ कामाग्नि से पीड़ित थी, जिस प्रकार अगर दबी हुयी अग्नि को हवा करेंगे तो वह प्रज्वलित हो जाती है। स्त्रियाँ अपनी कामदशा को बताना नहीं चाहती थी। इसलिए वह नासमझ स्त्रियाँ अपनी कामदशा को कम करने की जगह और अधिक कामाग्नि से पीड़ित हो गयी।
अभूत सभाया मनसोऽतिकम्पकृत्तदत्र कष्टेऽप्यतिकष्टमिष्टहृत्। यथैव कुष्ठे खलु पामयाऽजनि अहो दुरन्ता भवसंभवा वनिः॥
अभीष्ट का हरण करने वाला यह प्रकाश प्रजाजन के मन को कम्पित करता हुआ कष्ट में भारी कष्ट के समान हुआ। ऐसा लगा जैसे कोढ़ में खाज हो गई हो। वास्तव में जन्म से सहित यह पृथ्वी दुःरुप परिणाम से सहित है। जिसका जन्म होता है उसका वियोग भी होता है।
यह पृथ्वी दुःखों से भरी हुयी है। इस पृथ्वी पर दुःख सुख दोनों ही हैं। यह पृथ्वी दुरन्त है।
चतुर्थ पाद से चमत्कार उत्पन्न हो रहा है। एक अन्य उदाहरण देखिए -
तदेकसन्देशमुपाहरत् परमुपेत्य बोधोऽवधिनामकश्चरः। अहो जगत्यां सुकृतैकसन्ततेरभीष्टसिद्धिःस्वयमेव जायते।।
राजा जयकुमार ऐसा विचार कर ही रहे थे कि अवधि ज्ञान रुपी दूत ने आकर उनकी आकांक्षा को अच्छी तरह पूर्ण कर दिया सो ठीक ही है क्योंकि पृथ्वी पर पुण्य की अद्वितीय परम्परा से वांछित अर्थ की सिद्धि स्वमेव हो जाती है।
पृथ्वी पर पुण्य का फल अपने आप मिल जाता है। अपने संचित कर्मों के द्वारा मनुष्य को फल की प्राप्ति होती है। वह जैसे कर्म करता है वैसे ही फल भोगता है।
दूसरी पंक्ति से काव्य सौन्दर्य रुपी चमत्कार विगलित हो रहा है। एक और ललित उदाहरण देखने योग्य है - अतानि तेनावधिना स संक्रमस्त्वनन्य एवाथ यतोऽव्रजदभ्रमः। यथाडकुरोत्पादनकृद् घनागमः फलत्यहो किन्तु शरत्समागमः।
उस अवधि - ज्ञान ने वह शक्ति प्रकट की कि जिससे सब भ्रम दूर हो 1. जयोदयमहाकाव्य 23/19 2. वही, 23/35
3. वही, 23/36