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एक और उदाहरण दृष्टव्य है
जगाम मैरेयभृते त्वमत्र आघ्रातुमात्तप्रतिमेऽरिलव । वध्वा स वध्वानयनेऽब्जबुद्धिं स्या ल्लोलुपानां तु कुतः प्रबुद्धिः ॥
मदिरा से भरे पात्र में स्त्री के नेत्र का प्रतिबिम्ब पड़ रहा था । उसे कमल समझ कर भ्रमर सूंघने के लिये गया, क्योंकि लोभी जीवों को विवेक कहाँ होता है ।
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लोभी मनुष्य इतना मदमस्त हो जाता है कि उसे अच्छे बुरे का पता ही नहीं चलता है। भैरें हमेशा कमल पर ही मड़राते रहते हैं । स्त्री का नेत्र कमल के समान प्रतीत हो रहा था । लोभी मनुष्य लोभ में आकर अपना विवेक खो बैठते हैं।
चतुर्थ पाद से चमत्कार विगलित हो रहा है । इस चमत्कार की एक और बानगी देखिए
जगतां जीवनेनापि किमित्यत्र नवारिता । समश्च विषमः सूक्तिरित्येषास्ति न वारिता ॥
जो जल जगत् के समस्त जीवों का जीवन है। उसने यहाँ नवीन शत्रुता किस कारण प्राप्त कर ली । सत्पुरुषों की जो वाणी है कि कभी मित्र भी शत्रु हो जाते हैं ।
जिस प्रकार जल सबके प्राणों की रक्षा करता है और यही जल आज जयकुमार के लिए मृत्यु का कारण बन रहा है। जैसे की कभी मित्र भी कारणवश शत्रु हो जाते हैं ।
इस श्लोक की सूक्ति के एक अंश में चमत्कार है । एक और उदाहरण देखिए
हृदयस्थितकामपावक कलयन्नञ्चलकैः किलावृतम् । वनिताजन एकतस्तरां तनुते वातततिं स्म साम्प्रतम् ॥
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एक और स्थित स्त्री समूह हृदय में स्थित कामाग्नि को उत्तरीय वस्त्र के अंचल से सुगुप्त जानता हुआ इस समय अत्यधिक हवा कर रहा था । स्त्रियाँ भोलेपन से यह नहीं समझ सकी कि हवा करने से छिपी अग्नि प्रज्वलित ही होगी, न कि शान्त ।
1. जयोदयमहाकाव्य 16/48
2. वही, 20/52
3. वही, 21/70
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