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कवि ने सूर्य व राजा को दीपक व प्रजा की बड़ी सुन्दर तुलना की है। पृथ्वी पर सूर्य का प्रकाश फैलने पर अन्धकार की सर्वथा निवृत्ति हो जाती है। सच है, एक महान राजा के प्रजा का पालन करते समय अन्यों को उस कार्य के लिए कष्ट नहीं करना पड़ता। दूत के इस भावभरित कथन में रमणीयता विद्यमान है जिससे चमत्कार आ गया है। सूक्ति की दूसरी पंक्ति में काव्य सौन्दर्य विगलित हो रहा है।
सुजना नु मनाक् समर्थनं च रवये दीप इवात्र नार्थमञ्चत्। उररीक्रियते न किं पिकाय कलिकामस्य शुचिस्तु सम्प्रदायः॥
हम आपकी बात का थोड़ा सा भी समर्थन क्या करें ? क्योंकि वह तो रवि को दीपक के समान कोई भी प्रयोजन रखने वाला नहीं है। जिस प्रकार आम की मंजरी कोयल के लिए भी अंगीकार की जाती है उसी प्रकार यह सुलोचना जयकुमार के लिए ही मान्य है। यह निर्दोष सम्प्रदाय सदा से ही चला आया है।
सुन्दर भाव की संयोजना है। यहां पर भी इस श्लोक के एक अंश में चमत्कार है।
सुचतैकदेशदृश्य चमत्कार कुसुमेषोः शरजर्जीरितापि या जनता स्ययमितस्तयापि। .
स्फुटं कुसुमसंधारणरीतिर्विषमगदं विषस्य भवतीति।
काम के बाणों के जर्जरित होने पर भी जनता ने उस समय स्पष्ट रुप से काम के बांणों को धारण करने की रीति अपनाई थी। ठीक ही है क्योंकि विष की औषधि विष ही होती है।
सभी स्त्री पुरुषों को काम ने अपने बांणों से जर्जरित कर दिया। सभी लोगों पर काम प्रभाव हो गया, सभी प्रसन्नचित्त होकर काम क्रीड़ा करने लगे। यह सर्वसम्मत है कि विष ही विष का नाश करता है।
चतुर्थ पाद में सूक्तैकदेशदृश्य चमत्कार है। एक अन्य उदाहरण देखिए - वाग्मिता हि येषा रूचिहेतुः सम्विदिता मनस्विनिवहे तु। यदत्र तृष्णी नृपुरैः स्थितं जडप्रसङगेमौनं हि हितम्॥
1. जयोदयमहाकाव्य 12/31 . 2. वही, 14/39
___3. वही, 14/77