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जब मनुष्य दुःखी हो अथवा किसी सुत की आवश्यकता हो तो तब उसकी सहायता की जाये तो सहकारीपन कहा जाता है। विपत्ति में साथ देना ही महानता है। सुख में सभी साथ देते हैं । दुःख मं महान् लोग ही सहायता करते हैं।
सुक्ति की दूसरी पंक्ति में चमत्कार है।
एक अन्य उदाहरण देखिए
हृदि तमोपगमात् प्रतिभाऽविशगित तदालपितेन जयद्विषः । यादिव कोकरुपतेन दिनश्रियः समुदयः कूतनक्तलयक्रियः ॥'
अकम्पन के कहने पर जयकुमार के विरोधी अर्ककीर्ति का रोष दूर हो गया। उसके मन में स्फूर्ति आ गयी। जैसे चकवे के विलाप से रात्रि चली जाती है और दिनश्री का समुदय हो जाता है ।
जिस प्रकार रात्रि में चकवे का अपनी प्रिया से वियोग होता है तो वह विलाप करता है । विलाप करते-करते दिन श्री का उदय हो जाता है और वह प्रिया का संसर्द प्राप्त कर प्रसन्न हो जाता है, उसी प्रकार अर्ककीर्ति के मन में भी दिन श्री का उदय हो गया और वह सारा मन का मैल दूर करके प्रसन्नचित्त हो गया।
उपर्युक्त श्लोक के उत्तरार्धगत मंजुल दृष्टान्त के द्वारा सुन्दरभाव का उपस्थापन किया गया है।
एक और उदाहरण देखिए -
शुचिरिहास्मदधीड् धरणीधर सति पुनस्तवयि कोऽयमुद्रवः । तपति भूमितले तपने तमः परिहतो किमु दीपपरिश्रमः ॥
दूत ने कहा है चक्रवर्तिन ! इस लोक में हमारे पवित्र महाराज परम विवेकशील स्वस्थ एवं प्राजपालन कार्य में तत्पर है। ऐसे आपके रहते हमें कोई उपद्रव, कोई कष्ट क्या हो सकता है ? पृथ्वी पर सूर्य के अपने पूर्ण तेज से तपते रहते अन्धकार मिटाने के लिए क्या दीपक को थोड़े ही श्रम करना पड़ता है।
सूर्य अपने आप को तपाते हुए सम्पूर्ण जगत को प्रकाशित करता है । दीपक को कुछ भी नहीं करना पड़ता है । उसी प्रकार आपके होते हुए हमें कैसा कष्ट।
1. जयोदयमहाकाव्य 9/20
2. वही, 9 /73.
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