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पास उसी प्रकार ले जाते हैं जिस प्रकार कुमुद्रती के पुण्यांश चन्द्रमा की कला को सूर्य से खींच लेते हैं। क्योंकि चन्द्रमा के उदित होने पर कुमुद खिलते हैं।
इस श्लोक की दूसारी पंक्ति में चमत्कार विगलित हो रहा है। एक अन्य उदाहरण देखिये -
निभृते गुणेरमुष्मिन् नाबनअधमवाप सापगुणदस्युः।
किमु देवे विपरीते परुषाण्यपि पौरुषाणि स्युः॥ दुर्गुणों का हरण करने वाली, गुणों की भण्डार इस सुन्दरी ने इस राजा से भी प्रेम नहीं किया अर्थात् इसको वर रुप में चयन नहीं किया, जब देव विपरीत हो जाता है तो क्या पुरुषार्थ भी कठोर अर्थात् व्यर्थ हो जाते हैं।
____ मालवदेश के राजा इतने गुण सम्पन्न थे कि सुलोचना ने उनका वरण नहीं किया, वह राजा सोचता है कि जब देव विपरीत हो जाता है तो क्या पुरुषार्थ (धर्म, अर्थ, काम) भी कठोर अर्थात् व्यर्थ हो जाते हैं।
यहाँ तृतीय और चतुर्थ चरण में मनोरम लालित्य का दर्शन होता है। अतः यहाँ सूक्तैकदेशदृश्यः चमत्कार का मंजुल सन्निवेश है। एक और उदाहरण दृष्टव्य है -
अहो मायाविनां सा या मायातु सुखतः स्फुटम्।
निजाहडकारतो व्याजोऽकम्पनेनायमूर्जितः।। अकम्पन ने अपने अहंकार में आकर यह छल किया है। बड़े आश्चर्य की बात है कि मायावियों की माया सरलता से साधारण लोगों की समझ में नहीं आती।
मायावी लोग अपनी माया का जाल इस तरह फैलाते है कि साधारण मनुष्य उनकी चतुरता को नहीं जन पाते हैं। जिस प्रकार अकम्पन की माया को कोई नहीं पहचान पाया है।
प्रथम पंक्ति में काव्य-सौन्दर्य रुपी चमत्कार प्रगट हो रहा है। एक और मनोहारी उदाहरम देखिये -
अन्यथाऽनुपपत्त्थाऽहं गतवांस्त्वदनुज्ञया। स्वातन्त्रयेण हि को रत्नं त्यक्त्वा काचं समेष्यति।
आप की दया से मैंने यह बात अर्थापत्ति प्रमाण द्वारा ताड़ ली। कारण 1. जयोदयमहाकाव्य 6/97 2. वही, 7/4
3. वही, 7/15
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