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कवि ने जयकुमार व सूर्य की किरणों व नौकर की बहुत ही मनौहारी तुलना की है।
जिस प्रकार से किरणों के बिना सूर्य की तेजस्विता कम हो जाती है उसी प्रकार अगर राजा के साथ उसका सेना दल न हो तो उसकी शोभा भी अल्प हो जाती है। सेना से राजा का महत्व बढ़ जाता है। इसमें सूमतेकदेशदृश्य चमत्कार है ।
दत्तमस्त्यपि निमन्त्रणपत्रमत्र चन च भवान् गिरमत्र । दुग्धतो हि नवनीतमुदेति गौस्तृणानि हि समादरणेऽति ॥ दुमति काशी नरेश से कहता है कि हे राजन् आप आग्रह तो करते हैं किन्तु क्या आपने हमें निमंत्रण पत्र भी दिया था जिससे आप ऐसा कहने के अधिकारी हो ? सोचिये तो सही कि मक्खन गाय के दूध से निकलता है और बिना आदर के गाय भी घास नहीं खाती।
मक्खन जैसी मूल्यवान वस्तु साधारण गाय के दूध से बनता है । गाय इतनी उपयोगी है। इसलिए हमें उसका आदर करना चाहिए। गाय को भी अगर आदर से घास नहीं खिलाते है तो वह घास नहीं खाती है।
हम तो राजा ठहरे और आपने हमारे राजा अर्ककीर्ति को निमंत्रण भी नहीं दिया ।
श्लोक की दूसरी पंक्ति से काव्य सौन्दर्य विगलित एक और मनोहारी उदाहरण देखिए
राजकीयसदन मतिभद्भयः प्राह सत्तनृपिताऽथभवद् भयः। संविहाय हृदयं न गुण्भ्यः स्थानमन्यदुचितं खलु तेभ्यः ॥
सुलोचना के पिता ने उन बुद्धिमानों के निवासर्थ अपना राजभवन ही बता दिया । ठीक ही है, क्षमादि गुणों के लिए हृदय को छोड़ दूसरा कौन सा स्थान उचित हो सकता है ?
जो
काशी नरेश ने अर्ककीर्ति को अपने राजभवन में ठहराया क्योंकि उनसे भूल हो गयी थी उसका प्रायश्चित करने का अच्छा अवसर था । इससे उनके हृदय में काशी नरेश के प्रति दया भाव उत्पन्न हो गया।
इस श्लोक की सूक्ति के एक अंश से समूचे पद्य में चमत्कार उत्पन्न हो रहा है ।
1. जयोदयमहाकाव्यम 4/21
2. जयोदयमाहाकव्य, 4/26
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