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स्थित क्रीडा कमल से उसे डराया। ठीक ही है, विद्वान पुरुष अयोग्य स्थान में की जाने वाली रति-क्रीड़ा कैसे सहन कर सकता है ? ।
विद्वान पुरुष सदैव सत्मार्ग का ही अनुसरण करता है। उसके लिए कुत्सित मार्ग गर्हित है। वह किसी को अयोग्य कर्म करते हुए नहीं देख सकता है।
इस श्लोक के एक अंश से ही सम्पूर्ण श्लोक में चमत्कार उत्पन्न हो गया है।
एक अन्य श्लोक देखिए - ___ मतिं क्व कुर्यात्नरनाथपुत्री भवेदभवान्नेवमखर्वसूत्री। इष्टे प्रेमेय प्रयतेत विद्वान विधेर्मनःसम्प्रति को नु विद्वान्॥
वह सुलोचना न जाने किसे वर ले, आप ऐसी दीर्घ विचारधारा में सोच-विचार में मत पड़िये। क्योंकि विद्वान का कार्य है कि वह अपनी अभीष्ट सिद्धि के लिए प्रयत्न करता रहे। इसके बाद दैव का रूख क्या है ? इसे कौन जानता है।
दूत जयकुमार से कहता है कि सुलोचना आपको ही वर रुप में पसन्द करेगी क्योंकि स्त्रियाँ सौन्दर्यर्थिनी होती है। आप यह न सोचे कि वह आपको वरण करेगी या नहीं। आप तो स्वयंबर में आने की कृपा करें क्योंकि विद्वान का कार्य है वह अपनी अभीष्ट सिद्धि पर्यन्त प्रयत्न करता रहे। विजय-पराजय पर ध्यान न दें।
श्लोक की दूसरी पंक्ति में चमत्कार है। यहाँ सूक्तेकदेशदृश्य चमत्कार
एक और भावपूर्ण चमत्कार देखिए -
सज्जीकृतं स्वीचकार परं परकिरं नृपः। शोभते शोचिषां सार्थेस्तेजस्वी तपनोऽपि चेत्।। इसमें उस समय का वर्णन है जब राजा जयकुमार स्वयंबर के लिए अपने दल-बल के साथ काशी प्रस्थान करते हैं।
प्रस्थान करते समय जयकुमार ने अपने साथ उच्चकोटि के कुछ आवश्यक नौकर चाकर भी ले लिये थे क्योंकि यद्यपि सूर्य स्वयं तेजस्वी है फिर भी किरणों के बिना उसकी शोभा नहीं होती। 1. जयोदयमहाकाव्य 3/85 2. वही, 3/102