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सकता क्योंकि भूसे के बिना धआन्य नहीं उपजता है। उसी प्रकार निश्चय नय को करने के लिए व्यवहार नय होना जरूरी है। . इस श्लोक के चौथे पाद से श्लोकार्थ चमत्कार उत्पन्न हो गया है।
किट्टिमादिपरिशोधने नलं संवेददधिपदं समुज्जवलम्। शेमुषी श्रुतरसिन् सुराज ते स्वर्णमग्निकलितं हि राजते॥
हे शास्त्र अद्ययन में रस लेने वाले भव्य पुरुष! तुम्हारी बुद्धि कीट आदि के हटाने के लिए उज्जवल अग्नि को समुचित स्वीकार करेगी। कारण अग्नि के द्वारा तपाया गया स्वर्ण ही चमकदार बनता है। . जिस प्रकार से स्वर्ण जब तक अग्नि में नहीं तपता है तब तक वह मूल्यवान नहीं होता। तपा-तपा कर ही उसको निखारा जाता है और उसकी मलिनता को दूर किया जाता है। उसी प्रकार से हे पुरुष, अपनी बुद्धि को पवित्र करने के लिए उज्जवल रुपी अग्नि में अपनी बुद्धि को परिमार्जित करो, तभी वह सारवान् होगी।
इस श्लोक के चौथे पाद से काव्य सौन्दर्य प्रवाहित हो रहा है। इस चमत्कार की एक और बानगी देखिए -
नयवर्मेदं निर्णयवेदं प्राप्तुमखेदं स्पष्टनिवेदम्। सुमतिसुधादं विगतविषादं शमितविवादं जयतु सुनादम्।।
मुनिराज कहते है कि मैंने जो नीति मार्ग बतलाया है वह खेद से रहित, प्रमाणभूत ज्ञान प्राप्त करने के लिए असन्दिग्ध कथन है। सदबुद्धिरुपी सुधा को देता और विषाद को मिटाता है। यह विसंवाद को हटाता है। शोभन ध्वनियुक्त इस कथन का जय जयकार हो।
यह नीति मार्ग का सबसे उत्तम मार्ग है। इस पर चलने वाला सम्पूर्ण दु:खों से उबर. जाता है।
एक अन्य उदाहरण देखिए - स सर्पिणीं वीक्ष्य सहश्रुतशुरतामथेकंदाऽन्येन बताहिना रताम्।
प्रतर्जयामास करस्थाकन्तः संहेत विद्वानपदे कुतो रतम्।।
उस राजा जयकुमार ने एक सर्पिणी को जिसने उसके साथ धर्मश्रवण किया था, किसी अन्य जाति के सर्प के साथ रति क्रीड़ा करते देखकर हाथ में
1. जयोदयमहाकाव्य 2/81 2. वही, 2/137
3. वही, 2/140