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________________ ___ कवि कविता का रचयिता होता है, पर उसका रसानुभव विद्वान ही करता है। जैसे स्त्री के सौन्दर्य को पति जानता है पिता नहीं। कविता के रसों का पान सहृदय जन ही करते हैं। साधारण व्यक्ति कविता के महत्व को नहीं समझ सकता है। जिस प्रकार स्त्री के सौन्दर्य को पति जानता है पिता नहीं। यह समस्तसूक्तव्यापी का सुन्दर उदाहरण है। काव्य में शब्दयुक्तियों से लालित्य आ जाता है। इसमें कवि अपने जीवन के अनुभवों को सार्वजनिक और सार्वलौकिक बनाकर प्रस्तुत करता है। अनुभव कवि के लोक दर्शन और व्यक्तिगत अनुभूतियों पर आधारित होते हैं। आवश्यकता पड़ने पर कवि अपने काव्य में सामान्य तथ्यों से विशेष का औरक विशेष तथ्यों से सामान्य का समर्थन करता है। किसी प्रसंग में जयोदय महाकाव्य के प्रणेता ने अपने जयोदय महाकाव्य में मनोरम सूक्तियों को निदृष्ट किया है। इन सूक्तियों को निदृष्ट किया है। इन सूक्तियों से जहाँ इस काव्य में रमणीयता आ गयी है, वहीं इनसे कवि के जीवन दर्शन पर भी प्रकाश पड़ता है। इस सदुयक्तियों की सूची इस शोध प्रबन्ध के परिशिष्ट संख्या 2 में दी गयी है, जिनके पर्यालोचन से कवि का विशाल लोकानुभव पर प्रकाश पड़ता है। सूक्तैकदेशदृश्यः चमत्कार सूक्तैकदेशदृश्यः चमत्कार की परिभाषा - सूक्ति के पद्य में एक अंश में रहने वाले चमत्कार को सूक्तैकदेशदृश्यः चमत्कार कहते हैं। जहाँ श्लोक के एक अंश में ही चमत्कार उत्पन्न हो जाये तथा श्लोक का भाव अपने एक अंश से ही चमत्कृत हो उठे वहाँ सूक्तैकदेशदृश्यः चमत्कार होगा। सूक्ति के एक अंश में रहने वाला चमत्कार जयोदय महाकाव्य के इस श्लोक में द्रष्टव्य है। __ आत्मने हितमुशन्ति निश्चयंव्यावहारिकमुताहितं नयम्। विद्धि तं पुनरदः पुरस्सरं धान्यमस्ति नविना तृणोत्करम्॥ यद्यपि महात्मा लोग निश्चय नय को अपना हितकर अथवा व्यवहार नय को अहितकर कहते हैं। फिर भी हे शिष्य! यह समझ लें कि निश्चय नय व्यवहार - नय पूर्वक ही होता है। क्योंकि धान्य भूसे के बिना नहीं होता। अगर मनुष्य चाहे कि वह खाली धान्य को उत्पन्न कर ले तो वह नहीं हो 1. जयोदयमहाकाव्य 2/3 (पूर्वार्ध) 145) 8888888888888888888888888888888888888888888888888888888888888888888888888888 364680 300008888888
SR No.006277
Book TitleAacharya Kshemendra Dwara Pratipadit Chamatkaratva ke Pariprekshya me Aacharya Gyansagar Dwara Virachit Jayoday Mahakavya ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansagar
PublisherDigambar Jain Dharm Prabhavna Samiti
Publication Year2001
Total Pages310
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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