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समथ4 होता हुआ विपदाओं के समूह को कुछ नहीं गिनता। उसकी उपेक्षा कर देता है। जैसे पतंग प्राणघात करने वाली दीप शिखाओं पर बिना किसी प्रतिबंध के शीघ्र ही आ पड़ता है। .
विषयी मनुष्य विषय वासनाओं में इतना लिप्त हो जाता है कि उसे अपने भले - बुरे का ध्यान नहीं रहता है। जिससे उसे अपने प्राणों का संकट होता है। उसी के आगे आ जाता है। जैसे पतंग दीप शिखा के आगे ही बिना रोक-टोक के आ जाता है।
इस पूरे श्लोक में रमणीयता है। इसलिए यहाँ समस्तसूक्तव्यापी चमत्कार
एक अन्य मञ्जुल दृष्टान्त दृष्टव्य है -
जनता च नतां समाश्वसैः स्वमनस्यम! नेव विश्वसेः।
नटवत् तटवर्तिदृक्तया रहितो हर्षविमर्षसक्तया॥ हर्ष और विषाद को रचने वली दृष्टि से रहित हो तटस्थ वृत्ति से विनीत जनता को सदा उत्साहित करना चाहिए। परन्तु विश्वास करते समय अपने हृदय का भी विश्वास नहीं करना चाहिए। फिर अन्य मनुष्य की तो बात ही क्या है। विश्वास के विषय में नट के समान चेष्टा करनी चाहिए।
जिस प्रकार नृत्य करने वाला सबकी और देखता है दर्शक समझता है कि वह हमारी और देख रहा है, लेकिन वह वास्तव में किसी एक की और नहीं देखता है। इस प्रकार से राजा को नट के समान व्यवहार करना चाहिए। जिससे प्रजाजन समझे कि राजा मुझसे प्रसन्न है। लेकिन उसकी प्रसन्नता किसी एक की और नहीं होनी चाहिए।
तुलान्तवतद् द्वयमस्तु वस्तु प्रतिष्ठित विज्ञहृदीह वस्तुम्। न पश्चिमाशेन विना बिभर्ति समग्रमंशं खलु यास्ति भितिः।
जिस प्रकार तराजू के दोनों पलड़े परस्पर बद्ध होते हैं। एक पलड़े से तराजू नहीं बनती है, उसी प्रकार वस्तु भी अस्ति-नास्ति दोनों रुप होकर ही ज्ञानी मनुष्यों के हृदय में प्रतिभासित होने के लिए प्रतिष्ठित है।
जिस प्रकार जो दीवाल है वह अपने पिछले भाग के बिना पूर्णता को धारण नहीं करती, उसी प्रकार कोई भी वस्तु अपने से विरुद्ध धर्म के बिना पूर्णता को प्राप्त नहीं होती। 1. जयोदयमहाकाव्य 26/24 2. वही, 26/77
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