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________________ यहाँ समस्तसूक्ति ही भावलावण्य की मानो वर्षा कर रही हो। एक और ललित उदाहरण देखने योग्य है - हस्तावलम्बनबलेन किलोपलम्य स्त्रागालिलिङग गलतः प्रणतं स सभ्यः। सर्वस्वमूल्यमिति तुल्यतया निजस्य कुर्याच्छितं लघुमयीह जनः प्रशस्यः॥ इस संसार में उत्तम मनुष्य शरण में आये हुए साधारण मनुष्य को भी स्वयं अपने समान कर लेता है। ऐसा विचार कर सभी में विद्यमान भरत चक्रवर्ती ने अत्यन्त प्रिय विनम्र जयकुमार को बूमि से उठाकर छाती से लगाया। उसके पश्चात् गले से आलिङगन किया। यहाँ राजा भरत की महत्ता बतायी गयी है कि उन्होंने अपने सेनापति जयकुमार को गले से आलिडिगत करके उसे अपने समान बना लिया। यहाँ समस्त सूक्तव्यापी चमत्कार है। इस चमत्कार की एक और बानगी देखिए - ननु जनो भुवि सम्पदुपार्जने प्रयततां विपदामुत वर्जने। मिलति लाडगलिकाफलवारिवद् व्रजति यद्गजमुक्तकापित्थवत्॥ . पृथ्वी पर मनुष्य सम्पत्तियों का संचय करने पर और विपत्तियों का निराकरण करने में प्रयत्व भले ही करे, परन्तु शूभोदय होने पर नारियल के भीतर स्थित पानी के समान संपत्ति स्वयं मिलती है। पाप का उदय होने पर हाथी के द्वारा खाये हुये कैथा के सार के समान स्वयं चली जाती है। जब मनुष्य का भाग्योदय होता है तो बिना प्रयत्न किये ही सम्पत्ति मिल जाती है। अगर भाग्य में नहीं लिखा है तो लाख प्रयत्न करले कि सम्पत्ति हमारे पास रहे लेकिन वह नहीं रहती। सम्पत्ति-विपत्ति का आनाजाना सब भाग्य पर निर्भर करता है। यह श्लोक समस्तसुक्तव्यापी का सुन्दर उदाहरण है। गणयतीतित्तणो विपदां भरं न विषयी विषयैषितया नरः। असृहतिष्वपि दीपशिखास्वरं शलभ आनिपतत्यपसम्बरम्।। विषयी मनुष्य विषयाभिलाषी होने के कारण विपत्ति के सहन करने में 1. जयोदयमहाकाव्य, 20/15 (उत्तरार्द्ध) 2. वही, 25/11 3. वही, 25/24
SR No.006277
Book TitleAacharya Kshemendra Dwara Pratipadit Chamatkaratva ke Pariprekshya me Aacharya Gyansagar Dwara Virachit Jayoday Mahakavya ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansagar
PublisherDigambar Jain Dharm Prabhavna Samiti
Publication Year2001
Total Pages310
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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