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________________ तदधीशाज्ञयाऽऽयातः कुशलं वः पदाब्जयोः।. विसारस्ततैः किं स्थाज्जीवन जीवनं विना॥ काशी नरेश अकम्पन का दूत जयकुमार की प्रसंशा करते हुए कहा है कि - उस नगरी के स्वामी की आज्ञा से में यहाँ आया हूँ। मेरा कुशल तो आपके चरमों में है क्योंकि जल के बिना मछली का जीवन कैसे ? जिस प्रकार जल के बिना मछली का जीवन नहीं, उसी प्रकार आपके चरणों के बिना मेरा जीवन सारहीन है। मैं सर्वथा आपके ऊपर ही आश्रित हूँ। इस श्लोक में समस्तसूक्तव्यापी चमत्कार देखने योग्य है। आस्तदा सूललितं चलितव्यं तन्मयाऽवसरणं बहु भव्यम्। श्री चतुष्पथक उत्कलिताय कस्यचिद् व्रजति चिन्न हिताय।। सुलोचना के स्वयंबर की बात सुनकर प्रत्येक व्यक्ति उसको पाने के लिए लालायित है। यदि ऐसी बात है तो फिर मुझे भी चलना ही चाहिए। अर्थात् में भी चलूगा। कारण यह असवर तो बहुत सुन्दर है। चौराहे पर रखे हुए रत्न को लेने के लिए किसका मन नहीं चाहता ? सुलोचना को रत्नों की भांति सभी पाना चाहते हैं। सभी के मन में विचार है शायद स्वयंबर में हमारा भाग्योदय हो जाये। प्रत्येक व्यक्ति मूल्यवान रत्न को पाने की इच्छा रखता है। समस्त सूक्ति में चमत्कार दृष्टिगोचर होता है। एक और मनोहारी उदाहरण देखिए - दीपस्तमोमये गेहे यावन्नोदेति भास्करः। स्नेहेन दीप्यतां तावत् का दशा स्यात्पुनःप्रगे। अन्धकारमय घर में रखा दीपक तेल के द्वारा तब तक चमकता रहे जब तक सूर्य का उदय न हो। किन्तु सबेरे सूर्य का उदय हो जाने पर उसकी क्या दशा होगी ? जब घर में अन्धकार होता है तब तो (दीपक) की आवश्यकता होती है। सूर्य का प्रकाश फैलता है तो दीपक का प्रकाश नगण्य हो जाता है। सूर्य अपने प्रकाश में दीपक का प्रकाश आत्मशात कर लेता है, फिर दीपक की कोई आवश्यकता नहीं होती है। 1. जयोदयमहाकाव्य, 3/31 2. वही, 4/7 3. वही, 7/30
SR No.006277
Book TitleAacharya Kshemendra Dwara Pratipadit Chamatkaratva ke Pariprekshya me Aacharya Gyansagar Dwara Virachit Jayoday Mahakavya ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansagar
PublisherDigambar Jain Dharm Prabhavna Samiti
Publication Year2001
Total Pages310
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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