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पवित्रता को प्राप्त होता है। किन्तु यदि कोई ऐसा मानकर गोमय और गोमूत्र का भक्षम करता है तो खेद है कि वह अविचारिता का लक्षण है।
गाय के गौमूत्र को शुद्ध बताया है। लेकिन इसका यह आशय नहीं कि कोई बिना विचार के ही लालच में आकर उसका सेवन करे, यह अनुचित है।
समस्त सूक्ति में उपदेश के द्वारा उचित-अनुचित का भेद बताया है। इसलिए यहाँ समस्तसूक्तव्यापी चमत्कार है।
एक और उदाहरम दृष्टव्य है -
कार्यपात्रमवताद्ययोचितं वस्तु वास्तुमुखमर्पयन् हितम्। येन सम्यगिह मार्गभावना का गतिर्निशि हि दीपकं विना॥
गृहस्थ का कर्तव्य है कि यथायोग्य मकान आदि उपयोगी वस्तुएँ देकर नौकर चाकर आदि की भी देखभाल करता रहे, जिससे जीवन निर्वाह में सुविधा बनी रहे। कारण रात्रि में दीपक के बिना निर्वाह कठिन होता है। हम उसके प्रकाश के बिना कुछ भी कार्य करने में असमथ4 रहते हैं ठीक उसी प्रकार नौकर के बिना गृहस्थ जीवन में कठिनाई होती है। अकेले कार्य करना किसी के वश में नहीं है। जो हमारे कार्य में उपयोगी हो उसको कुछ देना हमारे लिए ही हितकर है। यह समस्त सूक्ति ही भावलावण्यमयी है।
प्रियोऽप्रियोऽथवा स्त्रीणां कश्चनापि न विद्यते।
गावस्तृणभिवारण्यऽभिसरन्ति नवं नवम्॥ स्त्रियों के लिए न तो कोई प्रिय है और न कोई अप्रिय। वे वनों में नयी - नयी घास करने वाली गायों की तरह नवीन पुरुषों की और अभिसरण किया करती है।
जिस प्रकार से गाय को किसी एक प्रकार की घास से लगाव नहीं होता है उसे तो तृप्ति चाहिए उसी प्रकार स्त्री को भी कोई एक ही पुरुष प्रिय नहीं होता है। वह सदा नवीन पुरुषों का अभिसरण किया करती है। कवि ने गाय व स्त्री की बड़ी मनोहारी तुलना की है। अतः यहाँ समग्र सूक्ति में चमत्कार है।
इस चमत्कार की एक और बानगी देखिए -
1. जयोदयमहाकाव्य, 2/97 2. वही, 2/147
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