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________________ कभी जीवादि द्रव्यों से पृथक थे। इसलिये सत् में जो अनेकत्व है वह उसमें अनेक गुणों के साथ तादात्म्य होने से है, संग्रह रुप होने से नहीं। अनेक गुणों की ओर दृष्टि देने से जीवादि सत् अनेक रुप जान पड़ते हैं, परन्तु उन सब में प्रदेश भेद न होने से परमार्थ से एकरुपता है। गम्भीरता पूर्वक विचार करने पर रमणीयता की प्रतीति होती है। एक अन्य उदाहरण दृष्टव्य है - ज्ञानार्णवोदयायासीदमुष्य शुभचन्द्रता। योगत्तवसमग्रत्व भागजायतसर्वतः॥ जयकुमार ने मुनि अवस्था धारण करने के पश्चात् तपस्या करना आरम्भ कर दिया तथा अपने ज्ञानवर्द्धन कार्य में लग गये। जयकुमार सब ओर से गतत्व और समग्रत्व को प्राप्त थे अर्थात् अतीत - अनागत पदार्थो में उनका ज्ञान व्याप्त था और पूर्णत्व को प्राप्त था, जिस प्रकार चन्द्रमा समुद्र को वृद्धिगत करता है, उसी प्रकार जयकुमार अपने ज्ञानरुप समुद्र को वृद्धिगत कर रहे थे। __जयकुमार सब ओर से ध्यानरुप वस्तु की पूर्णता को प्राप्त थे तथा ज्ञानार्णव नामक ग्रन्थ के उदय के लिये इनमें शुभचन्द्रपना था अर्थात् शुभचन्द्राचार्य ने जिस प्रकार ज्ञानार्णव नामक योगशास्त्र को रचकर ध्यान को विस्तृत किया है उसी प्रकार जयकुमार ने भी शुक्ल ध्यान के माध्यम से घातिया कर्मों का क्षयकर अपने ज्ञानरुप सागर को विस्तृत किया था। यह विचार्यमाण रमणीय का उदाहरण है। विचार करने पर जयकुमार के विशाल ज्ञान का पता चलता है। पं. भुरामल जी शास्त्री कहीं अपने वाग्व्यवहार के चातुर्य से अनायास विषय बोध कराने के दक्ष है, तो कही वे काव्य भाषा के प्रयोग सोष्ठव में ऐसी विदग्धता ला देते हैं कि बहुत विचार करने के बाद ही विषय का बोध हो पाता है। शब्दों के क्रम स्थापन में निपुण या कुशलता से ही काव्य में भाषा के सौन्दर्य का निवेश होता है। कहना न होगा कि महाकवि भूरामल जी की काव्य भाषा में शब्दों के क्रम स्थापन की पटुता अथवा कला लालित्य, पदशय्या की इच्छा से ही उससे भी अधिक सौन्दर्य का आधान हुआ है। यही कारण है कि पूरा जयोदय महाकाव्य काव्य रस की आपातरमणीय अनुभूति से सातिशय मनोरम बन गया है। 1. जयोदयमहाकाव्य, 28/48 280285222222222222222222382363238888888888888888888888888888888888888888 0 4 3 8888888888888888888888888888888833333333338888888888888888
SR No.006277
Book TitleAacharya Kshemendra Dwara Pratipadit Chamatkaratva ke Pariprekshya me Aacharya Gyansagar Dwara Virachit Jayoday Mahakavya ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansagar
PublisherDigambar Jain Dharm Prabhavna Samiti
Publication Year2001
Total Pages310
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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