SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 140
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ लावण्य सौन्दर्य रुचिरता, मनोहरता, मनोज्ञता, तरलता, सुकुमारता, और लालित्य, स्फूर्ति और ओज ये सबके सब जयोदय महाकाव्य की रमणीय बनाये हुये हैं । - रससिद्ध कवीश्वर भूरामल जी इस महाकाव्य में सम्यक् प्रभाव, सृष्टि के लिए व्यंजक विशेषणों और सादृश्य विधान या अप्रस्तुत योजना के प्रति अधिक सचेष्ट रहे है। साहित्य शास्त्र में मर्मज्ञ भूरामल जी माधुर्य और प्रसाद गुण व्यंजक वर्णवाली शब्दावली से अपने काव्य में प्रचुर रमणीयता ला दी है। उनकी रमणीयता में वाच्यार्थ के साथ ही लक्ष्यार्थ व व्याग्यार्थ की प्रधानता है । व्यग्य वाले स्थलों पर सुष्ठु किन्तु गरिष्ट प्रयोगों के दर्शन होते हैं फिर भी अर्थ बोध हो जाने पर काव्य-सोष्ठव की आवर्जकता हृदय को अभिभूत कर लेती है । इस तरह जयदेव महाकाव्य कवि के सफल काव्य-सौन्दर्य का भाषिक प्रतीत है। विचार्यमाण रमणीयता के अन्य सुन्दर दृष्टान्त वक्ष्यमाण पंक्तियों में दृष्टव्य हैं नटी मुदा मन्दपदाममैयं लास्यं रसा सभ्यजना नुमेयम् । प्रसिद्धवंशेस्य गुणोधवश्यमुपैतु भूमण्डलमण्डस्य ॥ सव्रजदव्रजस मुत्थरजस्तामीश्वरो ज्झनिदशश्च दिशंस्ताः । पीतिमा नमिमता ननदेशेऽवापुराप्य जगतीह सुवेश ॥" निमज्जितं तेन जलैकपूरे श्रुतश्रियां वैभवतोऽप्यदूरे । श्रीसर्वतोभदूतया मनोज्ञे भलापहेऽस्मिन् कविकल्पभोम्ये॥' राजते हि जगती रजस्वलाऽमी ततोऽथ तुरगाः सुपेशलाः । रूमास्पृशन्त इति यान्ति कश्मलादभीतिमन्तइव तावदुत्कलाः ॥ गोप्रतिर्जनतयासि भाषितोऽस्माकमाशु गुणवदवृशस्त्वकम्। आह सोऽथ वदतीतरे जयः किन्न गोत्रिगुण एवभो भवान् ॥ उच्चैस्तनमौदकायसिद्धा निःस्वेदया रुचा जगतीद्वा । मन्तश्री रिवाभिरामा महीपतेः साबभूव रामा ॥ भियेव भव्यो भवभावितच्छलात् स्वयं महोद्यानचतुष्टयच्छलात्। सुवृत्त एताः परिवर्तिताकृतीर्विभर्ति धर्मार्थनिका मनिवृतीः ॥ 5/8 3. वही, 19/9 1. जयोदयमहाकाव्य, 1/32 2. वही, 4. वही, 21/9 5. वही, 21 /85 6. वही, 22 / 14 7. वही, 24/11 135
SR No.006277
Book TitleAacharya Kshemendra Dwara Pratipadit Chamatkaratva ke Pariprekshya me Aacharya Gyansagar Dwara Virachit Jayoday Mahakavya ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansagar
PublisherDigambar Jain Dharm Prabhavna Samiti
Publication Year2001
Total Pages310
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy