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स्नान लक्ष्मी रुपी स्त्री ने जयकुमार को स्वीकार किया। इस पक्ष में विशेषणों की अर्थ योजना इस प्रकार है -
अभ्यक्षरुचि - पति के शरीर में जिसकी रुचि है, शुचि स्वभाव से जो उज्जवल रुप को धारण करने वाली है। पयोधरोदारघटाघट के समान जिसके बड़े-बड़े स्तन है, विधूपमानार्हमुखा जिसका मुख चन्द्रमा की उपमा के योग्य है, सुखाशिका जो मुख की आशा करती और वरवर्णशासिका पति के रुप अथवा यश का वर्णन करने वाली है।
रमणीयता गूढ है जो विचार करने पर ही प्रतीत होती है। एक अन्य उदाहरण देखिए -
तवावतारो हृदिमे प्रशस्य क्षुद्रेऽ वादशे इव द्विपस्य। गुणांस्तु सूक्ष्मानपि सालसंज्ञा सूची न गृहणाति कुतरसज्ञा॥
जयकुमार जिन मन्दिर में जाकर भगवान् की स्तुति करता हुआ कहता है कि - हे प्रशस्य! हे स्तुत्य! मेरे संकीर्ण हृदय में आपका अवतीर्ण होना ऐसा है जैसे दर्पण में हाथी का अवतार होता है। यह एक उल्लेखनीय प्रसङग है परन्तु सुई के समान जो मेरी रसज्ञा जिह्वा है वह अलसज्ञा - रसज्ञा न रहकर अलासज्ञा हो गई है अर्थात् आलस्य को प्राप्त हो गई। यद्यपि सुई आपके सूक्ष्म गुण - महीन सूत को ग्रहम कर लेती है परन्तु मेरी जिह्वा रुपी सुई आपके सूक्ष्म गुणों को ग्रहण नहीं कर पाती। इसलिए वह अलसज्ञा हो गई है। तात्पर्य यह है कि आपकी महिमा हमारे हृदय में अवतीर्ण हुई है परन्तु जिह्वा में उसे कहने की सामर्थ्य नहीं है। वह आपके गुणों का व्याख्यान नहीं कर सकती है।
विचार्यमाणरमणीय का ललित उदाहरण देखिए -
रसहितं नवनीतमगान्मनो वचनचक्रमभूत कटुतक्रवत। किलिकिलाटवदङ्गगतं नु ते किमु न पश्यसिगोरससारिके॥
रविप्रभ नामक देव ने जब कांचना देवी को जयकुमार के शील की परीक्षा लेने के लिए भेजा, तब वह अपने हाव - भाव आदि से जयकुमार को विचलित नहीं कर पायी तब जयकुमार ने उससे कहा! हे गोरससारिके! वचन सम्बन्धी आनन्द का अनुभव करने वाली ! हे गोपिके! श्रृङगारसहित तुम्हारा मनरुपी नवनीत तो अग्नि से सहित हो पिघलकर बह गया, वचन समूह छाछ के समान कटुक हो गया और शरीरगत जो चेष्टा है वह छोक के समान नि:सार है, यह क्या तुम देख नहीं रही हो ? 1. जयोदयमहाकाव्य, 24/87 2. वही, 24/137
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