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पर जयकुमार ने कहा कि फिर भी मैं आपका सुहृद मित्र हूँ अर्थात् आपने मृगनेत्री मृगनयनी न देकर मृगनेत्री हरिणी दी, इससे मुझे रोष नहीं है इससे आप मेरे शत्रु नहीं है किन्तु आप लोगों के प्रति सुहृद भाव ही है।
विचार करने पर रमणीयता प्रतीत होती है। विचार्यमाणरमणीय का मनोहारी उदाहरण देखिए -
शर्वरीति मृदुचलना सालंचक्रे विस्तृतकरं नृपालम्।
भास्वन्तं भुवि वेशश्चायं ज्येष्ठो जडतापकरणाय॥ मृदुचलना कोमल चरणों वाली शर्वरी सुलोचना युवती ने विस्तृतकर दीर्घबाहु और भास्वन्तं दीप्तियुक्त राजा जयकुमार को विभूषित किया। पृथ्वी पर जड़ता मूर्खता के अपकरण दूर करने के लिये ज्येष्ठ श्रेष्ठ प्रकार माना जाता है, अर्थात् स्त्री पति के अनुकूल रहे, इससे जड़ता धृष्टता नष्ट होती ही है।
सुलोचना ग्रीष्म ऋतु के समान थी, क्योंकि जिस प्रकार ग्रीष्म ऋतु में रात्रि मृदुचला - स्वल्प परिणाम होती है, उसी प्रकार सुलोचना भी मृदुचलना कोमल पैर वाली थी। जिस प्रकार ग्रीष्म ऋतु विस्तृतकर विस्तृत किरणों वाले भास्वन्तं सूर्य को अलंकृत करती है उसी प्रकार सुलोचना भी विस्तृतकरं भास्वन्तं नृपालं दीर्घबाहु एवं देदीप्यमान राजा को अलंकृत करती थी और ग्रीष्म ऋतु में जेठ का महीना जिस प्रकार जडताप के कारण जल के गर्म होने का कारण है, अथवा जल स्वभाव को नष्ट करने वाला है, उसी प्रकार सुलोचना भी जडतापकरणाय मूर्खता को दूर करने वाली थी।
सुलोचना की ग्रीष्म ऋतु से तुलना बड़ी ही सुन्दर कल्पना है। विचार करने पर सौन्दर्य विगलित हो रहा है। एक और बानगी दृष्टव्य है
अथेममभ्यडगरूचिः पुनः शुचिः पयोधरोदारघटा बभाज सा। विधूयमानार्हमुखा सुखाशिका समाप्तवश्रीर्वरर्णशासिका।
जब जयकुमार व सुलोचना कैलाश पर्वत पर चढते है तो मार्ग में जिन मन्दिर देखते है। उन दोनों की शोभा अनुपम थी। उस स्नान लक्ष्मी ने जयकुमार की सेवा की, जो अभ्यडरुचि उबटन अथवा तेल - मर्दन में रूचि रखती थी, शुचि स्वभाव से उज्जवल थी, पयोधरोदारघटा - जल को धारण करने वाले बडे-बड़े कलशो से सहित थी, विधुपमानार्हमुखा - कपूर की उपमा के योग्य प्रारम्भ से सहित थी, सुखाशिका - सुख प्रदान करने वाली थी और वरणशासिका - उत्तम रुप को प्रदान करने वाली थी।
1. जयोदयमहाकाव्य, 22/17,
2. वही, 24/57
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