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विचार्यमाण रमणीयत्व का एक रुचिर दृष्टान्त दृष्टव्य है -
गवाभाधारभूतास्ते यद्यपीहद्द सडकुराः।
खलं लब्ध्वा भवन्तीमा रससंक्षरणक्षमाः॥ ___ यद्यपि इस लोक में सज्जनों के कृपाकटाक्षः वाणी के आधारभूत है, तथापि ये गोरुप वाणी दुर्जन खली को पाकर रसोत्पादन में समर्थ होती है।
घास के अंकुर खाकर ही गायक जीवित रहती है, परन्तु खली के खाने से ज्यादा दूध देती है। इसी प्रकार सज्जनों की कृपा से कविगण काव्य की रचना करते हैं। उनकी प्रेरणा से ही कवि काव्य रचना में संलग्न होते है। परन्तु दुर्जन मनुष्य दोष प्रदर्शित कर उस रचना को निर्दोष कर देते हैं। अतः सरसता उन्हीं से प्राप्त होती है। विचार्यमाण रमणीयत्व का एक रुचिर दृष्टान्त है -
पाणिनीयकुलकोक्तिसुवस्तु पूज्यपादविहितां सुदृशस्तु। सर्वतोऽपि चतुरङगतताभिः काशिकां ययुरमी घिषणाभिः।।
भरत चक्रवर्ती का पुत्र अर्ककीर्ति सुलोचना के स्वयंबर सभा में जाने के लिए काशी पहुँचते हैं। उसी का वर्णन कवि ने किया है।
ये लोग अपने घोड़ो की पक्ति द्वारा सर्वत्र चार तरह से विस्तार को प्राप्त होने वाली अपनी बुद्धि से सुलोचना के आदरणीय चरणों से युक्त काशिका - नगरी को हाथ के संकेत मात्र में शीघ्र पहुँच गये।
समासोक्ति से इसका अर्थ इस प्रकार है कि अध्ययन, बोध, आचरण और प्रचारण इन चार रुपों से सर्वत्र फैलने वाली अपनी बुद्धि द्वारा पूज्यपादाचार्य की पाणिनीय - व्याकरण पर बनायी काशिका वृत्ति को इन लोगों ने प्राप्त किया।
यह श्लोक विचार्यमाणरमणीय का है। .. एक अन्य उदाहरण -
अस्मदत्र तु भवान्मृगनेत्री प्राप्य गच्छतु परम्पराभावम्। प्राह सोऽपि गदतीत्यपरस्मिन्नास्मि किन्तु भवतः सुहृदेव।
स्वयंबर के पश्चात् जब जयकुमार हेमाङगद आदि सालों के साथ हस्तिनापुर में हास्य विनोद करते हैं। तब कोई जयकुमार से कहता है कि यहाँ आप हमसे मृगनेत्री मृगों की नायिका हरिणी (पक्ष में मृगनयनी सुलोचना) को प्राप्त कर परम्परभाव पुत्रपौत्रादिकी वृद्धि की होओ। इस प्रकार किसी के कहने 1. जयोदयमहाकाव्य, 28/95, 2. वही 4/16, 3. वही, 21/86