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दुर्गुणों का संग्रह करता है । ज्ञानवान् मनुष्य की वाणी से वचन तभी निकलते हैं जब उसका प्रयोजन हो ।
यह विचार्यमाण रमणीय का सुन्दर उदाहरण है ।
विचार्यमान रमणीयत्व का एक अन्य रुचिर दृष्टान्त दृष्टव्य है विकारवर्ण्य वपुराविभाति महामुनेर्हेममिवाभिजाती । यज्जतुषं चेन्मणिकारवारे रज्जयेत किमोक्तिकमप्युदारेः ॥' इस श्लोक में महामुनियों की विशेषता बतायी गयी है। महामुनि का विकार रहित शरीर स्वर्णनिर्मित उच्चकोटि के आभूषण के समान सुशोभित होता है । जिस तरह लाख से निर्मित वस्तु कलाकार के विविध प्रकारों से रंग दी जाती है, उसी प्रकार क्या मोतियों से निर्मित वस्तु भी रंगी जाती है अर्थात नहीं ।
लाख के आभूषण पर रंग किया जाता है लेकिन मोतियों पर रंग नहीं होता है । उसी प्रकार गृहस्थ के शरीर पर विविध प्रकार की सजावट की जाती है। मुनि राज के शरीर पर नहीं ।
गृहस्थ मनुष्य को भोग उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता है ।
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विलास की लालसा होती है। मुनिराज पर
नानात्मवर्तनोऽप्यासीद बहुलोहमयत्वतः । समुज्जवलगुणस्थानग्रहोऽ भूत् तन्तुवायवत् ॥
जब राजा जयकुमार ने मुनि व्रत धर्म का पालन किया तो वह गुण स्थानों में प्रवृत्ति करने वाले हो गये थे ।
वे जयकुमार मुनि अनेक प्रकार से उहापोह से सहित होकर भी आत्मा को छोड़ अन्य पदार्थों में प्रवृत्त करने वाले नहीं थे। अपना उपयोग आत्मा में अथवा अत्यधिक लोह धातु रूप होकर अनेक प्रकार के भजनों से सहित थे तथा जुलाहे के समान अपना गुणस्थान को ग्रहण करने वाले थे, विरत गुणस्थानों में प्रवृत्ति करने वाले थे ।
गुणस्थान चौदह होते हैं। छठवें गुण स्थान से लेकर आगे के सब गुणस्थान मुनियों के ही होते हैं ।
विचार करने पर प्रतीत होने वाले रमणीयत्व के कारण यह विचार्यमाण रमणीय का उदाहरण है ।
1. जयोदयमहाकाव्य, 27/38, 2. वही 28/14
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