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राजा जयकुमार स्वयं स्वातिहित थे, मनुष्यों के नेत्र सीप थे और उनसे निकलने वाली आँसुओं की बूंदे मोती थी। रमणीयता गम्भीरता पूर्वक विचार करने से प्रतीत होती है।
इसी क्रम में एक अन्य उदाहरण अवलोकनीय है - जिनतोऽभिमतः पराजयः स्वयमस्मान्नयमब्दुला लयः।
कुसुमानि सुमायुधस्य तत्करत्श्चाम्बरतः पतन्त्यतः।।
राजा जयकुमार वृषभदेव के समवसरण के अवलोकन मात्र से प्रसन्न हो गये। जिनराज की महत्ता दर्शायी गयी है।
समवसरण में पुष्पवर्षा हो रही थी जिससे जान पड़ता था कि कामदेव जिनराज से पराजित होकर अदृश्य हो गया है। जब मानों उसके हाथ से उसके शस्त्र रुप पुष्पों की वर्षा हो रही है।
समवसरण में आकाश से पुष्प वर्षा हो रही थी पर यह नहीं पता चल रहा था कि कौन पुष्प वर्षा कर रहा है। कवि ने संभावना की है कि कामदेव जिनराज से पराजित होकर लज्जा के कारण छिप गया और छिपकर आकाश से अपने शस्त्र - पुष्पों को जिनेन्द्र के आगे छोड़ रहा है।
यह बात सर्व सम्मत है कि शत्रु पराजित होकर अपने हथियार विजयी मनषुय के आगे डालदेता है।
यहाँ उत्प्रेक्षा की सहायता से यह रमणीय भाव अभिव्यक्त किया गया है कि पराजित शत्रु विजेता के आगे अपने हथियार डाल देता है।
जयदेव महाकाव्य में अनेकविध रमणीयत्व का प्राचर्य है। विचार्यमाण रमणीयत्व की एक और बानकी देखिए -
इतस्ततो भो परिमार्जनीवाऽविदधनुः सावगुणार्जिनी वाक। वेश्येव विज्ञस्व पुनर्मनुष्यान् सम्मोहयन्ती भृतिकामनु स्यात्॥ भगवान् जिनेन्द्रदेव के द्वारा धर्मोपदेश का वर्णन किया गया है।
हे भव्य! अनभिज्ञ मनुष्य की जो वाणी होती है वह इधर - उधर झाड़ने वाली बुहारी के समान दुर्गुणों का संग्रह करने वाली होती है, पर विवेकी मनुष्य की वाणी वेश्या के समान मनुष्यों को मोहित करती हुई प्रयोजन के अनुसार ही प्रवृत्त होती है। निष्प्रयोजन नहीं होती।
कवि ने अज्ञानी मनुष्य की उपमा झाड़ने वाली बुहारी से दी है। जिस प्रकार झाडू से हम कूड़ा - कचा इकट्ठा करते है उसी प्रकार अज्ञानी मुष्य 1. जयोदयमहाकाव्य, 26/45 2. वही, 27/29
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