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________________ यहाँ कवि ने उसके लाल भाग में राग का और कृष्ण मुख में द्वेष का आरोप किया है। निर्मल तट में भव्य जन के अन्तरात्म का आरोप हुआ है। अधिक विचार करने पर इस श्लोक की रमणीयता प्रतीति होती है। एक अन्य उदाहरण देखिए - व्यमुञ्चदेकार्थतयेकतां गतौ - स रागरोषविह दीपदम्भतः। निजक्रियासम् मदर्शिनो - पूनर्जवाज्जयः स्वस्कवर्णलक्षणी॥ इसमें उस समय का वर्णन है जब जयकुमार जिन मन्दिर में जाकर भगवान् की स्तुति कर रहे हैं। जयकुमार ने शीघ्र ही दीपक के छल से एक प्रयोजनता को प्राप्त रागद्वेष को छोड़ दिया था, कयोंकि रागद्वेष और गीपक दोनों ही अपनी संभ्रमण रुप क्रिया को दिखा रहे थे तथा दोनों ही अपने वर्णरुप लक्षण को धारण करने वाले थे। जिस प्रकार दीपक प्रकाश और कज्जल रुप होते हैं वायु के वेग से सम्भ्रमिरुप हलन चलन रुप होते हैं उसी प्रकार रागद्वेष भी शुभ अशुभ रुप होते है और यह संसार परिभ्रमण के कारण कहलाते हैं। कवि ने रागद्वेष व दीपक की बड़ी ही मार्मिक तुलना की है। विचार करने पर रमणीयता प्रतीत होती है। इसी श्रृंखला का एक अन्य उदाहरण अवलोकनीय है - __अयि सुवराज! वशमहीरुहि - स्वगतवातवशेन मिथोगुहि। अपरमत्र न किञ्चिदये फलं, कलहवहिनमुपेमि तु केवलम्॥ जयकुमार को संसार की निःसारता जानकर वैराग्य उत्पन्न होना। हे सुवंशज! मैं स्वकीय सन्तान से परिपालन की बुद्धिरुप वायु से परस्पर द्रोह करने वाले कुलरुपी वृक्ष अथवा बॉस के वृक्ष पर मात्र कलहरुप अग्नि को प्राप्त करता है। इसके सिवाय कुछ भी फल नहीं प्राप्त करता। __ जिस प्रकार बॉस के वृक्ष पर कुछ भी फल नहीं लगता वे परस्पर के संघर्ष से अग्नि ही उत्पन्न करते हैं, उसी प्रकार कुटुम्बरुपी वृक्ष में परस्पर के विवादास्पद संवाद से कलहरुप अग्नि ही उत्पन्न होती है, उसमें आत्मा का हित करने वाला कोई फल प्राप्त नहीं होता है। गृहस्थ धर्म से मनुष्य कुछ भी फल नहीं प्राप्त कर सकता है। इस पद्य में सुष्ठ रमणीयत्व है। 1. जयोदयमहाकाव्य, 24/78 2. वही, 25/30 %83%88%82908 3%83888888888888888888888883888888888888888888888 1 26 1 20 5 5555555 6053845%88 5 5555555558
SR No.006277
Book TitleAacharya Kshemendra Dwara Pratipadit Chamatkaratva ke Pariprekshya me Aacharya Gyansagar Dwara Virachit Jayoday Mahakavya ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansagar
PublisherDigambar Jain Dharm Prabhavna Samiti
Publication Year2001
Total Pages310
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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