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.. कवि ने इस श्लोक में उस समय का वर्णन किया है, जब महाराज अकम्पन ने अपना दूत हस्तिनापुर के राजा जयकुमार के पास सुलोचना के अनुपम रुप, सौन्दर्य आदि गुणों की प्रशंसा करता हुआ कहता है।
___ यह कुमुदगबन्धु (कुमुद नामक कमल का विकासक चन्द्रमा) यदि सुलोचना के सम्मुख में भला चाहता है, तो यहाँ इसके मुख को मित्र बनाकर उससे कुछ भी विन्दु अर्थात् सारभूत काति प्राप्त कर ले।
कवि का अभिप्राय है कि चन्द्र अपने कुमुदवन्धु नाम से भु को हटाकर उसके स्थान पर विन्दु को स्वीकार कर ले। अर्थात् मुंदवन्धु बन जाय तभी कुशल है। अन्यथा सुलोचना के मुन्दकुसुमवत् मुख के सामने चन्द्रमा बिल्कुल फीका पड़ जायेगा।
भाव यह है कि सुलोचना का मुख अनुपम काति से युक्त है। उसके आगे चन्द्रमा की कांति फीकी है। यह पद्य विचार्यमाणरमणी है। तुडहा गभीरहत्वात् समुद्रवत् सज्जनक्रमकरत्वात्।
लावण्यखचितदेहो नदीनतालम्बनस्तेऽहो॥ इसमें उस समय का वर्णन है, जब विद्यादेवी सुलोचना से कुरु देश के राजा से परिचय कराती है तथा उसके गुणों का व्याख्यान करती हुई कहती
आश्चर्य की बात है कि यह राजा गम्भीर हृदयवाला है, सज्जनों का क्रम स्वीकार करने वाला है, लावण्युक्त शरीरवाला है, दीनता से रहित है। अत: समुद्र के समान यह तेरी प्यास बुझा देगा। क्योंकि समुद्र भी गम्भीर होता है, वह नर्क-मकरादि जलजन्तुओं से युक्त खारे जल वाला और नदियों का स्वामी होता है। समुद्र नदी की स्वामिता धारण करता है, यह दीनता का अभाव धारण करता है।
कवि ने राजा व समुद्र की तुलना बड़ी ही मनोहारी की है। यह श्लोक विचार्यमाणरमणीय का है।
विराजमाना हयमा मुखेन सुधाकरेणापि तथा नखेन। अवर्णनीयोलमभास्करा वा निशा यथा शस्यतमस्वभावा। इस श्लोक में उस समय का वर्णन है जब सुलोचना विवाह मण्डप में
1. जयोदय महाकाव्य, 6/81 2. जयोदय महाकाव्य, 11/71
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