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एक अन्य मनोहारी उदाहरण दृष्टव्य है -
वेला बभूव व्यवधानहेतुः सुलोचनातद्ववयोर्द्वये तु। सन्ध्या निशावासरयोरिवाथा नुगच्छतोर्निम्ननिबद्धगाथा।
जिस प्रकार आगे - पीछे चलते हुए रात्रि और दिन के बीच सन्ध्या व्यवधान का कारण होती है, उसी प्रकार सुलोचना और जयकुमार इन दोनों के बीच निम्नांकित परिचय से युक्त बेला व्यवधान का कारण हुई थी।
यहाँ अविचारित रमणीयता की झटिति प्रतीति हो जाती है। अतः अविचारितरमणीयत्व का यह मंजुल उदाहरण है। एक अन्य मंजुल दृष्टान्त देखिए -
बहिरमीष्वसमेषु विकारतः परिचयं रचयन्नविचारतः। न परमात्मप्दये रतिमेत्ययं रस इयान् रसितःकिमपिस्वयम्॥
जयकुमार को कांचना नामक देवी के अभद्र व्यवहार से वैराग्य भाव उत्पन्न हुआ और संसार की निःसारता का ज्ञान हुआ।
इस जीव ने इतना रस का आस्वादन किया है कि तज्जनित विकार से यह उचित और अनुचित का विचार भूल गया है। फलस्वरुप इन बाह्य विलक्षण विषयों में स्वयं परिचय करता हुआ राग को करता है और आत्महितकारी मार्ग में प्रीति नहीं करता है।
मनुष्य अपनी आत्मा के सुख को नहीं प्राप्त करता है और सांसरिक सुखों से दु:खी होता है।
विना विचार किये ही चमत्कार की प्रतीति हो रही है अतः यह अविचारितरमणीय का उदाहरण है।
एक अन्य उदाहरण देखिए -
समा:समात्तं किमु विस्मरन्तु भुक्तस्य युक्तं न विवेचनं तु। भविष्यते स्फातिमितस्य काल: फलत्यनल्पं किमु नो नृपालः।।
जयकुमार ने जब संसार परित्याग का निश्चय करके आदिनाथ के समवसण में जाते हैं तो जिनेन्द्रदेव उनको धर्मोपदेश देते हैं -
हे राजन! सम्माननीय मनुष्य अच्छी तरह प्राप्त हुई वस्तु को क्या विस्मृत कर दें ? अर्थात् नहीं, वे उसका सदुपयोग करें। जो बीत चुका है उसका विवेचन करना उचित नहीं है। भूविष्यत् के लिए विचार करने वाले 1. जयोदय महाकाव्य, 24/100 2. वही, 25/62, 3. वही, 27/4
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