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________________ रखता है। पश्चिम दिशा रुपी स्त्री इसलिए बाहर निकालना चाहती है क्योकि उसको पता है कि उसके ऊपर तो पूर्व दिशा का स्वामित्व है, यह उसके अधीन है अतः इस पर हमारा स्वामित्व स्थापित नहीं हो सकता। अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार नववयस्या स्त्री वृद्धपति को पसन्द नहीं करती, उसी प्रकार स्त्री में आसक्त पति को भी पसन्द नहीं करती। यहाँ अविचारितरमणीयता की सहज और झटिति प्रतीति हो रही है। अतः यह अविचारितरमणीय का सुन्दर उदाहरण है। एक और बानगी देखिए - इति प्रोढसम्भषणोपातपाणिर्मूदुप्रायपच्छी कुमारस्य वाणी। विभीरुः शनैरुद्ययो हे नुमानिन् महीभृत्पतेःपाददेशे तदानीम् ॥ स्वयम्बर के पश्चात् जयकुमार अयोध्या भरत चक्रवर्ती से मिलने के लिए जाते हैं तब - जिस प्रकार कोमल चकणों वाली कोई भक्ति स्त्री किसी के हाथ का सहारा पाकर धीरे धीरे किसी विशाल पर्वत के शाखा पर्वत पर चढ़ती है, उसी प्रकार सुवन्त-तिङन्त रुप कोमल पदों से सहित जयकुमार की संकोचशील वाणी चक्रवर्ती के सम्भाषण रुप हाथ का आलम्बन प्राप्त कर धीरे-धीरे राजाधिराज (पक्ष में विशाल पर्वत) के चरणं के समीप (पक्ष में शाखापर्वत) पहुंची। अविचारितरमणीय का मंजुल 'उदाहरण है। श्लोकस्थ विचार सौन्दर्य का सद्यः भान हो जाता है। एक अन्य निदर्शन अवलोकनीय है - जयः प्रचक्राम जिनेश्वरालयं - नयप्रधानः सुद्रशा समन्वितः। महाप्रभावच्छविमुन्नतावधिं - यथा सुमेरुं प्रभयान्वितोरविः।। जब जयकुमार व सुलोचना कैलास पर्वत पर जाते हैं तो मार्ग में जिन मन्दिर देखते हैं। और पूजा, अर्चना, परिक्रमा के लिए जिन मन्दिर जाते हैं। कवि ने अविचारित रमणीय के द्वारा प्रदक्षिणा की बड़ी सुन्दर कल्पना की है। __जिस प्रकार प्रभा से सहित सूर्य बहुत भारी प्रभायुक्त छवि वाले उत्तुङग सुमेरु पर्वत की प्रदक्षिणा करता है, उसी प्रकार नीति प्रधान एवं सुलोचना से सहित जयकुमार ने कान्तिशाली उस जिनमन्दिर की परिक्रमा की। __ इस पद्य में दार्शनिक सौन्दर्य है तथा विना विचार किये ही रमणीयंता दिखाई देती है। 1. जयोदय महाकाव्य, 20/20 2. वही 24/56
SR No.006277
Book TitleAacharya Kshemendra Dwara Pratipadit Chamatkaratva ke Pariprekshya me Aacharya Gyansagar Dwara Virachit Jayoday Mahakavya ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansagar
PublisherDigambar Jain Dharm Prabhavna Samiti
Publication Year2001
Total Pages310
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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