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सविभ्रमां च विटपेरुपश्लिष्टपयोधराम। तत्याज तरसा भूपः स्निग्धच्छायां वनावनिम्॥ राजा जयकुमार काशी में आयोजित स्वयंबर समारोह में उपस्थित होने के लिए जाते हैं तो वह वन भूमि को पार करके काशी में पहुँचते हैं। उसी का चित्रण किया गया है।
जयकुमार ने वनभूमि को बड़े वेग से पार कर त्याग दिया। वह वनभूमि पक्षियों की घूमने से विलासयुक्त थी। वहाँ के वृक्ष मेघों को छेते थे। वहाँ बड़ी घनी छाया थी।
बनावनी की कोई सुन्दर नायिका मानें तो सुलोचना में अत्यन्त अनुरक्त होने से राजा ने उसे भी तेजी से दुतकार दिया। यह वनावनीरुपा नायिका भी स्त्री विलासों से युक्त थी। उसके पयोधर कामुकों द्वारा आश्लिष्ट थे तथा उसकी कान्ति भी अत्यन्त स्निग्ध कोमल रही।
_इस श्लोक में विना विचार किये ही स्वतः वन सौन्दर्य का दर्शन होता है। अतः यह अविचारितरमणीय का सुन्दर निदर्शन है।
एक अन्य उदाहरण देखिए -
प्राचीनतातोऽप्यनुरागवन्तं प्रतिश्रणत्येव नवागन्तम्। निष्काशयत्याशु नभोनिकायात्सहस्त्ररश्मिं चरमा दिशा या।।
जयकुमार व सुलोचना सेना सहित जब हस्तिनापुर प्रयाण करते है तब वे मार्ग में गङगा तट पर स्थित एक वन में ठहरते हैं। वहाँ सूर्यास्त का कवि ने बड़ा ही सचित्र वर्णन किया है।
जो पश्चिम दिशा रुपी नवीन वय वाली स्त्री है वह लालिमा से सहित (पक्ष में प्रेम सहित) भी सूर्य को पूर्व दिशा का स्वामित्व होने (पक्ष में वृद्धत्व) के कारण प्रेमपूर्वक अवलोकन क्या देती है ? उसकी ओर नेत्र खोलकर देखती भी है क्या ? अर्थात् नहीं देखती। उसे वह अपने आकाशरुपी घर से निकाल रही है।
सूर्यास्त होता देख कवि कल्पना करता है कि पश्चिम दिशा रुपी नववयस्का स्त्री वृद्धत्व के कारण उसे पसन्द नहीं करती है। उसे क्षमभर के लिए भी अपने पास नहीं रहने देना चाहती और उसको अपने आकाशरुपी घर से निकाल देना चाहती है। जबकि सूर्य पश्चिम दिशा रुपी स्त्री के प्रति प्रेम 1. जयोदय महाकाव्य, 3/113 2. वही, 15/18